Friday, 3 June 2016

मेरी अधूरी मोहब्बतें....

(6)

2013 अपने रौ में...सर्दियाँ गुजरी और फ़िर से पतझड़ बिखरने का मौसम...वही नवम्बर अपनी तमाम मदहोशियाँ और हमारा 20वाँ जन्मदिन लेकर आ गया। पगली के उस लाज़वाब इंकार ने हमें कुछ दिनों के लिए फ़िर से प्यालों के समंदर में गहरे तक गोता लगाने भेज दिया था। एक तो आसो...उपर से शराब...बाक़ी की क़सर पूरी करने हम और हमारा दरबार...हुवा ये कि अबतक का सबसे खर्चीला जन्मदिन मनाया गया। दरअसल हम पगली को ये दिखाने की फ़र्ज़ी क़ोशिशें कर रहे थे कि उसके बिना भी हम बङे मौज़ में हैं...खुद को बरगलाने का काम एक चोट खाए आशिक़ से बेहतर और कोई कर भी नहीं सकता...सो हमने भी बङे शिद्दत से ये काम अंज़ाम दिया। शाम से ही दरबार व्हिस्की-सोडा के बोतलों की खनखनाहट और दाँतों से तोङे जा रहे मनचुरियन की चरमराहट से गुलज़ार हो चला था। लोग आते रहे और गला तर करके जाते रहे...बारह बजते ही थोङा खलल पङा और केक काटे जाने की तैयारियाँ शुरू हुवी पर हमने केक काटने से पहले पगली के एक फोन की उम्मीद बाँध रखा था। समय बढ़ता रहा और महफ़िल का माहौल भी बिगाङता रहा पर पगली का फोन न आया...अपने ग़म को अंदर बाँधे हमने केक काटने की औपचारिकता पूरा किया और जानवरों की तरह व्हिस्की कलेजे में उतारने लगा। तमाम लोग उसदिन गवाह हुवे हमारे बेतरह फट जाने का और सारा का सारा भङास पिछले चुनावों के कुछ विभीषणों पर निकाले जाने का।
कुछ बेहूदे अक्सर हां बोला करते हैं कि पैसे से खुशी भी खरीदा जा सकता है...हमने भी उसदिन खुशी को खरीद लाने की जुर्रत किया था...नतीज़ा दसियों हज़ार रूपये वाया शराब होते पेशाब में तब्दील हो गया पर अंतस ग़मगीन रेगिस्तान ही बना रहा। ठीक एक साल पहले हमने बहुत कम खर्चे में ही ज़िंदगी का बेहतरीन लम्हा जिया था और अब सबकुछ लूटा कर भी रेगिस्तान को रत्ती भर हरियाली न दे सके थे। हमें अहसास हो चुका था कि हमारी ज़िंदगी...हमारी दुनियादारी...बिन पगली सब सून है।
अब ग़मों के गहराते जाने का दौर था...और उस ग़मगीन आग को ज़हर से बुझाने का दौर था। ये वो दौर था जब हमने सुबह आँख खुलते ही प्याले से आचमन करना शुरू कर दिया था...इसी दौर में सुबह से रात तक पाँच बोतल ब्लेंडर्स-प्राइड को गटक जाने का कीर्तिमान भी बनाया गया। जबतक पगली को अपने आशिक़ का होश आया तबतक हम बेहोश होने लगे थे। कुछ शायराना लिखने के लिए दो ही चीज़ जरूरी होती है...एक तो पेन(PEN) और दूसरा पेन(PAIN)...दोनों ही हमारे पास बेहिसाब था। सो तभी लिक्खा गया कि...

"ये कैसी ज़िद है फ़िर से पास आने की राज,
आग हूँ...बोलो उसे...वो जल जाएगी।"

पर पगली को कौन समझा भी सकता था...एक हम ही थे पर हम बोतलों में डूबे हुवे थे। ज़ल्दी ही लीवर ने पैगाम भेज दिया कि हम मोटापे के मरीज़ हो गये हैं...अब हम बिस्तर पर थे और तबियत ने वापस अपने देस जाने का आदेश दे दिया था। हम गये भी...घर में सारा भेद भी खुला...हंगामों की बरसातें भी हुवी...पर जाने से पहले हम मरने के हालात में थे और तब अपने दर्द से डायरी को कुछ इस अंदाज़ में परिचित कराया...

"उल्फ़त का ऐसा अंदाज़...देखो राज,
बात दिल से चली थी...लीवर पे खत्म हो गई।"

(जारी...)

- Raj Vasani 😉😃

7 comments:

  1. Can't tell you anything 😷
    Waiting for next part.

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  2. ये दिखाने की फ़र्ज़ी क़ोशिशें कर रहे थे कि उसके बिना भी हम बङे मौज़ में हैं...खुद को बरगलाने का काम एक चोट खाए आशिक़ से बेहतर और कोई कर भी नहीं सकता.. <-- aksar aisa kyun hota hai!

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