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नेतागिरी में चार सालों के भीषण सक्रियता ने हमें बहुत थका दिया था...और वैसे भी प्रत्यक्ष सक्रियता के उस आखिरी चुनाव में हमने ज़िंदगी के कई पन्नों को अकाल मौत दिया था। अब हम ग्रेजुएट होके आगे की पढ़ाई के लिए पॉलीटेक्निक काॅलेज पहुँच चुके थे...फ़िर से भीङ काफ़ी अज़नबी हो चुकी थी। मालूम नहीं कब हम किंगफिशर से वृद्ध भिच्छुक तक का सफ़र तय किये...पैग में पगली का अक्स खोज़ पाने की तमाम क़ोशिशें नाकाम रही। कभी-कभार फोन या फेसबुक पर हमें छेङकर वो हमारे कलेजे को धधकता छोङ जाती रही...और हम कभी उसको भूलाने तो कभी यादों में ही पगली को जी लेने की ख्वाहिश रखे मदिराफंड को बङा करते रहे। अधूरी मोहब्बतों का सफ़र वाया जेएनयू कब हैदराबाद पहुँचा...कब फ़िर से चोट खा वो पीवीआर वर्ज़न बन गया...हमें ये भी न मालूम...पर ये सबकुछ दिसंबर से पहले जिया जा चुका था।
उस मनहुस साल का वो अंतिम हफ़्ता...साइबेरिया हो जाने की क़ोशिशें करती दिल्ली की वो कंपकपाती बरसाती रात...हम वृद्ध भिच्छुक संग महफ़िल सजाए बैठे थे...इतने दिनों से सुलगता रहा कलेजा उस दिन भिच्छुक के संभाले न संभला और हमने अपनी मोहब्बत का पहला काला पन्ना लिख डाला। पगली को उस रात हमारे द्वारा सुनाई गई लेक्चरनुमा धाराप्रवाह गालियाँ हमारे गुनाहों की सबसे ऊँची इबारतों में से है...ताउम्र हमें ये इबारत अपने लीपे-पूते चेहरे के पीछे का शैतान दिखाता रहेगा। ये आईना हमें आज भी टोकता रहता है और 'गुनाहों का देवता' होने की आत्ममुग्धता में हमें लताङता भी है।
बुराइयों की ये खासियत होती है कि वो हमें अच्छाइयों की कद्र करना सीखा जाती है। हम बेतरह टूटे हुवे थे...आर्थिक स्थिति अपने भीषणतम रूप में...लोगों ने भी स्वाभाविक तौर पर इग्नोरियाना शुरू कर दिया था...फोन जलाकर हम भी खुद को और तन्हा कर चुके थे। पाॅकेट को जब पाला मार जाए तो दुनिया का सबसे बेहतरीन पर्यटनस्थल अपना देस होता है...राजाधीराज द्वारिकाधीश के कर्मभूमि पहुँचकर हम धीरे-धीरे पगली को भूलाने लगे। नये साल के पहले दिन दिल्ली वापसी के बाद युद्ध स्तर पर पढ़ाई किया गया और फेसबुक पर निस्पक्ष लेखन भी शुरू किया गया।
हादसों ने कब किसी को अपनी खबर दिया है! हमारे दरबार का दिन था...दरबारियों ने शराबी दौर में पगली का ज़िक्र कर दिया...हम अपने को रोक न सके...हम लगातार फोन मिलाते रहे और वो हरबार काटती रही...परिणाम हम आत्मघाती हो गये। जानने के बाद पगली हमसे बात तो करने लगी पर अब मोहब्बत की ज़गह डर था उसकी बातों में। पगली को डर था कि अगर हमें कुछ हुवा तो वो बेवज़ह केस-वेस के चक्कर में फंस जाएगी और उसकी पत्रकारिता धरी रह जाएगी। हमें उन तमाम लोगों से नफ़रत होती है जो हमसे सहानुभूति रखे या डरे हमसे। हमने उसदिन बहुत साफ़-साफ़ बात किया तब उसने कहा कि हमसे कभी मोहब्बत किया ही नहीं था उसने...पहले नासमझी थी और अब डर है।
मोहब्बत में ऐसे झटके ही इंसान को शराबी और शायर बना दिया करते हैं...शराबी तो हम पहले से थे ही...अब शायर बन जाने की रूत थी। उन दिनों के कु-वित्व की बानगी अब भी हमारे फेसबुकिया टाइमलाइन की खूबसूरती बढ़ा रहे हैं...उनदिनों का एक कु-विता पेश-ए-नज़र है...
"उधेङबुन में था,
खाली-खाली सा,
तो मैंने उनसे,
ये सवाल कर दिया,
क्यूँ...जा रही हो?
हमसे ही मुँह चुरा रही हो?
वो ज़ोर से हँसी,
थोङा लरज़कर बोली,
मैं आयी ही कब थी?
उनका ये सवाल,
था इतना लाज़वाब,
कि दोस्तों...मुझे भी लाज़वाब कर गयी।"
(जारी...)
- Raj Vasani... 😉😊
Keep it up पगले....
ReplyDeleteहाहाहा.... बडा अच्छा नाम दिये हो...!!
Deleteआगे के लिए इन्तजार करिए 😊
हाहाहा.... बडा अच्छा नाम दिये हो...!!
Deleteआगे के लिए इन्तजार करिए 😊
Keep it up पगले....
ReplyDeleteRaj bhai...mast 👍👍👌👌💐
ReplyDeleteRaj bhai...mast 👍👍👌👌💐
ReplyDeleteThanks.... "વાલા"...!!!
ReplyDeleteThanks.... "વાલા"...!!!
ReplyDeleteDil se dil tak.... Waaah shayer waah....... 😘 awesome
ReplyDeleteThanks... Tezli.... 😘😘
ReplyDeleteThanks... Tezli.... 😘😘
ReplyDeletebhai mane block karva nu karan to aap....
ReplyDeletete mane block shaa mate karyo?
ReplyDeleteबुराइयों की ये खासियत होती है कि वो हमें अच्छाइयों की कद्र करना सीखा जाती है। sahi hai..aur vo kuvita nhi hi vakaii mein
ReplyDeleteबुराइयों की ये खासियत होती है कि वो हमें अच्छाइयों की कद्र करना सीखा जाती है। sahi hai..aur vo kuvita nhi hi vakaii mein
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