Friday, 25 March 2016

"गद्दारी हमारे खून में है"

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आज कल भारत में गद्दारी की फिजा चल रही है। यह देख कर लोग अचंभित है की इतने सारे गद्दार हमारे बीच में थे और हम लोगो को इसका एहसास ही नही हुआ। यह यकीनन बेहद अफसोसनाक और चिंतनीय है। मुझे में, गद्दारो के होने से इतना आक्रोश नही है जितना इस बात पर है की लोग इसको किसी वाद के प्रति आस्था या अभिवयक्ति की आज़ादी के नाम पर, निर्लज़्ज़ता और दम्भ से, भारतीय समाज से उनके गद्दार होने को प्रतिष्ठित कराना चाहते है। 

इसी पृष्टभूमि में मैंने बीते दिनो ककाोरी काण्ड में उन गद्दारो का जिक्र किया था जिनकी गद्दारी से रामप्रसाद बिस्मिल सहित 4  राष्ट्रभक्त क्रांतिकारियों को 1927 में फांसी की सज़ा मिली थी। इसके 4 साल के भीतर ही, 1931 में एक बार फिर गद्दारो की वजह से ही महान क्रन्तिकारी भगत सिंह, सद्गुरु, और राजगुरु को फांसी दीगयी थी।  

चंद्रशेखर आज़ाद की इच्छा के विरुद्ध, भगत सिंह ने बुटकेश्वर दत्त के साथ, "एचएसआरऐ" (HSRA) की आवाज़ देश भर में फ़ैलाने के लिए, "दिल्ली के केंद्रीय लेजिस्लेटिव असेंबली' में धमाके वाले बम फोड़ कर गिरफ्तारी दी थी। तब भगत सिंह को यह अंदाज़ा नही था की वो लाहोर में हुए एएसपी सेंडर्स की हत्या का भी मुक़दमा उन पर कायम होगा और उन्हें फांसी होगी।

भगत सिंह के बम फोड़ने के बाद से ही पुलिस "एचएसआरऐ" के सदस्यों के पीछे पड़ गयी थी। चन्द्र शेखर आज़ाद तथा अन्य "एचएसआरऐ" सदस्य गिरफ्तारी से बचने के लिए अंडरग्राउंड हो गए थे और पुलिस उनके ठिकानो पर लगातार छापे मार रही थी। इसी क्रम में लौहोर में स्थित बम फैक्ट्री पकड़ी गयी थी और उसमे सुखदेव थापर , किशोरी लाल और जय गोपाल को गिरफ्तार कर लिया गया था। उसके बाद, सहारनपुर स्थित बम फैक्ट्री भी पकड़ी गयी और इन दोनों फैक्ट्री के पकड़े जाने के बाद ही भगत सिंह, सुखदेव थापर और राजगुरु पर सेंडर्स की हत्या का मुक़दमा कायम हुआ था। दरअसल लौहोर बम फैक्ट्री में गिरफ्तारी के बाद से ही गद्दार सामने आये थे और उनकी गवाही ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी पर लटकवाया था।

वैसे तो कई लोगो ने गवाही दी थी लेकिन जिन गवाहों के बयान ने इन तीनो क्रांतिकारियों को फांसी की सजा दिलवाई थी वह "एचएसआरऐ" के सदस्य थे और उनके साथी थे। यहां इन गद्दारो के बारे में बात करने से पहले एक नाम की चर्चा जरूर करूंगा जिनका नाम अक्सर लोग लेते है और मानते है की उनकी गवाही पर भगत सिंह सहित तीनो को फांसी हुयी थी। 

भगत सिंह की फांसी के पीछे प्रसिद्ध लेखक खुशवंत सिंह के पिता, 'सर शोभा सिंह' का नाम बराबर लिया जाता है, जो की गलत है। यहां एक बात समझ लीजियेगा की दिल्ली में बम फोड़ना एक अलग केस था और लौहोर में सैंडर्स की हत्या बिलकुल अलग केस था। सर शोभा सिंह, जो की ब्रिटिश राज्य के कृपा पात्र थे और बड़े ठेकेदार थे, वे उस दिन, जिस दिन बम फोड़ा गया था असेंबली में मौजूद थे। उन्होंने ही भगत सिंह और बुटकेश्वर दत्त की शिनाख्त की थी और उन्होंने जो पूरा घटना क्रम बताया था, उसी के आधार पर भगत सिंह और बुटकेश्वर दत्त को 12 जून 1929 को, असेंबली में बम फोड़ने के इल्जाम में, आजीवन कारावास हुयी थी। हाँ, यहाँ यह बताना जरुरी है की अदालत ने अपने फैसला देने में, गवाहों की गवाही में दिए गए घटनाक्रम पर संदेह व्यक्त किया था लेकिन क्यूंकि खुद भगत सिंह और बुटकेश्वर दत्त ने अपनी गिरफतारी दी थी इसलिए उन्हें मुलजिम माना गया था। 

भगत सिंह, सुखदेव थापर और राजगुरु पर सैंडर्स की हत्या का मुकदमा, असेंबली बम कांड में सजा दिए जाने के बाद ही चालू हुआ था इसलिए उनकी फांसी के जिम्मेदार गद्दारो की कहानी उसके बाद ही शुरू होती है। इन तीन क्रांतिकारियों को फांसी दिलाने वाला केस "लौहोर षड्यंत्र केस" के नाम से जाना जाता है।

(क्रमशः) :-

1 comment:

  1. शोभासिंह के साथ एक नाम और आता है, शादीलाल. उस बेचारे को तो गांव मे कफन तक नसीब नही हुआ था. शोभासिंह भाग्यशाली रहे थे. ये लोग अंग्रेजो को भारत पर राज करने मे मदद करनेवालो मे शुमार थे. अब ईन्हे अंग्रेजो के वफादार कहो या गद्दार क्या फर्क पडता है.....

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