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अप्रैल 2014 की बात है...मोदी जी जब जंतर-मंतर पर शोभायमान थे...हम भी मीडिया के बहाए बयार में बहक के टीवी पर जा पहुँचे थे। उनदिनों भूख ही हमारी प्रचंड कमजोरी हुआ करती थी बावजूद सुबह से उपवास जारी। घंटे-दर-घंटे फेसबुकिया हवाबाज़ी भी अपने चरम पर...मार फोटू और मार स्टैटस दहला के रखे थे अपने फेसबुकिया दीवार को। वो पगली इसी हवाबाज़ी पर इम्प्रेस हो गयी और बङका क्रांतिकारी समझ बैठी। शामें तब बङी हसीन हुआ करती थी...परिणाम ये कि हर शाम को उपवास खान मार्केट में मैक्डोनाल्ड्स के आउटलेट पर बर्गर तोङते टूटता था। ऐसी ही एक हसीन शाम थी और बर्गर तोङती क्रांतिकारिता थी...फोन के स्क्रीन पर तभी एक अंजान नं फ्लैश होने लगा...मुँह में भरे बर्गर को जैसे-तैसे निगल फोन उठाया गया। दस-बारह सेकेंड के फ़र्ज़ी हैलो-हैलो के बाद पहली बार उस पगली की आवाज़ कानों में उतरी...और उतरी भी ऐसी की सीधे दिल में ज़गह कर गई।
बस यहीं से हमारे राह ने मोङ पकङा और ज़िंदगी का वो अध्याय शुरू हुआ जो अभीतक किसी को पढ़ाया नहीं गया...
वो दौर था जब ऑर्कूट चिरकूटियाने लगा था और थोक में लोग फेसबुक पर पलायन करने लगे थे...इसी दौर में फेसबुकिया मोहब्बत भी परवान चढ़ा। काली रातें चैट बाॅक्स में उजाला पाती रही...और नासमझी से समझ की ओर पलायन करते हम अपने पहले सच्चे प्यार को महसूस करने लगे। मोहब्बतें अक्सरहां एकतरफ़ा हुआ करती हैं...खासकर तब जब हम जैसे बेहूदा दीवानगी की हदों तक पहुँच जाएँ। एकतरफ़ा कब दोतरफ़ा बन गई...ना हमें मालूम ना उस पगली को। राजकोट के गर्मियों के दिन थे...फ़ोन पर तारीख़ फिक्स किया गया...भकितनगर सर्कल... हम थे कि दीदार-ए-परान को बेताब और पगली आई मुँह पर नकाब बाँधे। धङकनें कब धौंकनी बनी...कब हम उसको मंत्रमुग्ध सा फाॅलो करने लगे...कुछ पता नहीं। होश तब आया जब पगली ने लताङते हुए बोला कि ऐसे किसी अंजान लङकी के पीछे आते शरम नहीं आती...और होश भी ऐसा आया कि इगो हर्ट हो गया...परिणाम हम एक बीना शक्कर वाली चाय लगाकर के बुलेट पर सवार और रूख किए कालावाड रोड की ओर। लगातार आते फोन को इग्नोरियाते...और मन में भीष्म टाइप प्रतिज्ञा करते...घायल दिल लेके घर पहुँचे। पर वो क्या है न कि हम हर मोहब्बत बङी शिद्दत से किए हैं...शाम को मौसम ठंढाते हुए फोन करके बतियाए और प्रपोज कर दिए..
मोहब्बतें सोचा नहीं करती...हमने भी बङी शिद्दत वाला मोहब्बत किया...तो हम कैसे सोचते? पगली को हमारा प्रपोजल फैशनेबुल टाइप का महसूस हुआ...सो सिरे से हमको खारिज़ कर दिया गया...पर फेसबुक का चैटबाॅक्स एकाध दिन के अकाल के बाद फ़िर से गुलजार होने लगा और फोन पर भी बातें लम्बी होने लगी। मुलाकातों का...बेचैनियों का...आकर्षण का...दोतरफ़ा दौर धीरे-धीरे ही सही पर जोर पकङ रहा था। मुलाकातें काॅफी हाऊस से अमीन मार्ग ... क्रिस्टल मोल....रेसकोर्स रिंगरोड होते हुए फ़िर से भकितनगर सर्कल पहुँची...और वहाँ पहुँचते ही अंदर का गुबार ज्वालामुखी सा फटा और हमने धुआँ उङाके अपना कलेजा निकाल रख दिया। अपने आदर्शपुरुष नेताजी सुभाष की क़सम...तुम हमें हमारी मिमि(नेताजी एमिली शैंकल को इसीनाम से पुकारा करते थे) लगती हो...पवित्रता अपना असर छोङ के रहती है...और वैसे भी हम उसके अंदर घर बना ही चुके थे...सो हम हैप्पिली कमिटेड हो गए।
(जारी...)
:- Raj Vasani. (મોરી ચા.) 😊😉
ऐक अधुरी कहानी
ReplyDeleteThank you patel...
Deleteમોરી ચા પર ચર્ચા વીથ પોન્ટી
ReplyDeleteyes definitly patelkaka
Deleteમોરી ચા પર ચર્ચા વીથ પોન્ટી
ReplyDeleteમોરી ચા પર ચર્ચા વીથ પોન્ટી
ReplyDeleteSuperb..
ReplyDeleteWait for next part 👍
Wow...... Superb....
ReplyDeleteWow...... Superb....
ReplyDeleteThanks Tooooo all...
ReplyDeleteJordar mota
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