Sunday, 17 April 2016

मेरी अधूरी मोहब्बतें

जो प्रेम में होते हैं, किसी के नहीं होते..अपने भी नहीं.

मौसमों के संक्रमण के दिन थे. सर्दियां घिसट रही थीं...सूरज धरती को गर्म करने लगा था. हर सांझ सर्दियों को हवा लगा करती थी और सुबह उसका दम निकल जाया करता था. किसी साल ऐसे ही संक्रमण के मौसम में हमदोनों अपनी पसंदीदा जगह बीगबाईट में बैठे हुए थे.

बीगबाईट. रेसकोर्स रिंगरोड बना फूडकोर्ट. इसने नमालूम कितने प्रेम को पनपते, जवां होते और सिसक कर दम तोड़ते देखा है. कितने जोड़े यहाँ हाथें थामे आया किये हैं. एक ही कप में आइस-टी पीते कितने जोड़ों को इसने घंटों बैठे देखा है. इसकी टेबलों पर खूब गर्म आँसू गिरे हैं. यह बेइंतहा प्रेम, घुटन, टूटन का गवाह रहा है. हम भी इसके गवाह रहे और यह हमारा बयान बनकर रह गया...

ऐसी ही किसी सांझ हम दोनों वहाँ पहुंचे. आदतन आइस-टी मंगाकर मेन्यू पलटना शुरू कर दिये. टेबल से लेकर दीवारें और आर्डर लेने के लिए कागज़-कलम लिए बैरा तक जानता था कि आज भी कुछ नया नहीं होना है. परंपरागत तरीके से दोनों मेन्यू इस तरह डिस्कस कर रहे थे जैसे बीच अदालत किसी गंभीर किताब से कुछ भारी खोजते वकील. कप से दोनों घूंट दर घूंट लिए जाते थे...मेन्यू से कुछ चुनकर फिर कैंसिल किये जाते थे...खाली होते हर कप के बाद एक और नया कप आते जा रहा था.

‘अच्छा सुनो, पहले केक मंगा लेते हैं. जबतक तैयार होगा तबतक कुछ खाने का भी देख लेंगे.’...अचानक से किसी निष्कर्ष पर पहुंचकर वह बोली थी.

‘ठीक है. एक ब्लैक फारेस्ट पैक कर दो. सिर्फ ‘पगली’ लिखना उसपर. कैंडल 23 का रख देना. और देर मत लगाना.’

यह आर्डर देकर वापस खाने की खोज शुरू.
‘आज सब रहने देते हैं. कुछ भी समझ नहीं आ रहा. तुम न पिज़्ज़ा मंगा लो. सबसे बड़ा वाला मंगाना. उसके बाद हम  इस्कॉन चलेंगे. केक घर पर काटेंगे.’

उसके लहजे से यह साफ़ था कि अंतिम निर्णय आ चुका है. संशोधन की रत्ती भर गुंजाईश नहीं अब. फिर भी कोशिश के नाम पर हम तल्खी से बोले, ‘’इतना घूमेंगे तो केक का कबाड़ हो जायगा. पहले केक निपटा लो, फिर जहां कहोगी वहीँ चल लेंगे.’’

उसकी ऑंखें, जिनमें अभी बच्चे सी चमक थी, अब झरना हुई जाती थी. विश्वभर की तमाम प्रेम-कहानियों में ये झरने बहुत घातक हथियार हुआ करते हैं. विश्व के महान योद्धाओं ने यदि किसी प्रेयसी से आँसू के गोले का इस्तेमाल सीख लिया होता, लाखों-करोड़ों जिंदगियां बच गयी होतीं. फतह तो खैर खुद ब्रह्मा भी आकर नहीं टाल पाते. हम तत्काल प्रभाव से नरम हो चुके थे. विकल्प सोच रहे थे. उसकी आँखों में फिरसे बचपन लौट आया था.

वहां के प्रबंधक से बात करने के बाद मालूम हुआ कि कुछ अतिरिक्त भुगतान करने पर होम डिलीवरी संभव है. उसे पता लिखवाकर और सारी बातें समझकर लौटे तबतक टेबल पर डोमिनोज का पिज़्ज़ा आ चुका था. दो-दो स्लाइस के बाद किसी का मन खाने का नहीं था. काफी सारा हिस्सा अनछुआ पड़ा था. कुछ भी खाने की चीज फेंकना उसके आदर्शों के खिलाफ था तो बचे पिज़्ज़ा को पैक करा हम किसी भूखे की खोजपर निकल पड़े.

मंदिरों में आपको भगवान मिलें न मिलें, बाहर भूखे जरूर मिल जायेंगे. इसी तथ्य पर यकीन कर हम मंदिर की तरफ बढ़ चले. यही कोई चार-पांच सौ मीटर चले होंगे, फुटपाथ पर एक मरियल सा अधेड़ पड़ा मिल गया. हमदोनों हिचक भी रहे थे कि कहीं वह कुछ गलत न समझ ले. जूठा मान उसके आत्म-सम्मान को ठेस न लगे. हम उससे बात किये. वह निश्चित ही बहुत भूखा था और खूब उम्मीद से पिज़्ज़ा के डब्बे को देख रहा था. खैर, तुरंत ही उसने सारे बचे स्लाइस निपटा डाले. ऐसा लग रहा था जैसे उसकी भूख अभी बाकी ही हो. पूछने पर उसने कोल्डड्रिंक की इच्छा जाहिर की. खाने से उसका चेहरा कुछ ठीक हुआ था. साफ़ जाहिर हो रहा था कि यह शराब के कारण अधेड़ लग रहा है. अंदाज से कहें तो वह 26-27 साल का ही रहा होगा. हमदोनों को उससे बात करना अच्छा लग रहा था.

इस तरह की स्थिति में सामान्यतः लोगों में समाज-सुधारक की आत्मा घुस जाती है. हम दोनों समाज-सुधारक बन चुके थे..उपदेश दिए जा रहे थे. यदि नोबल वालों ने सुन लिया होता तो हम दोनों नोबल शांति पुरस्कार के प्रबल दावेदार मान लिए जाते.

‘देखो अपनी हालत. खुद पर कम से कम तरस खाओ. क्यों लेते हो शराब ?’ उपदेशक बनकर हम सवाल झाड़ चुके थे.

‘जाने दो साहब आप. मुझे भूख लगी थी, आपने खाना खिला दिया. खुदा आपपर इनायत करे. अब जाओ आप.’ बहुत बुरे लहजे में उसने यह कहा था.

अजीब लगा पर अब भी बात करना चाह रहे थे हम. थोड़ा और कुरेदने पर एकदम फट पड़ा और इथायल अल्कोहल से लेकर सिगरेट तक की रामकहानी कह गया. हर एक बुराई बता गया. उस दिन हमें पहली बार मालूम हुआ था कि सिगरेट के जलते सिरे का तापमान 700 डिग्री को भी पार कर जाता है. सिहर भी गए थे कि इस तापमान का धुंवा अन्दर कितना खाता होगा हमें भी.

उसने कोई शायरी बुदबुदाया था. ख्याल में खलल पड़ा. वह बेतरह रो रहा था. शब्द टुकड़ों में हमसे जब्त हुआ था. चीथड़ों से खोजकर उसने कई गंदले पन्ने निकाले थे. पन्ने पर दर्ज था..

इश्क़ जब तक न कर चुके रुसवा, आदमी काम का नहीं होता...

उसका रोना जारी था. लोग जुटने लगे थे. तरह तरह की टिप्पणियाँ. उड़ती बातों से मालूम हुआ कि वह इधर ही कुछ महीने से यहाँ नजर आ रहा है. जब आया था तब साफ़-सुथरा और शरीफ दिखता था. रातों में खूब रोया करता था. एक पालीथीन की थैली लेकर आया था वह जिसे किसी ने इससे छीन लिया था. उसके बाद इसकी हालत और बिगड़ते गयी. कहते हैं कि उस थैली में इसकी मरहूम माशूका की तस्वीर थी...

हम सन्न थे. वह बेतरह रो रही थी. चिथड़ा घिसटकर पैरों पर आ दया था और कुछ पैसे मांग रहा था...शराब पीने के लिए. लोग मना कर रहे थे. हमने अनमने में सौ का नोट उसे थमाया और बढ़ गए...बड़ी देर तक उसकी आवाज़ आती रही...’’जो प्रेम में होते हैं, किसी के नहीं होते...अपने भी नहीं.”

हमारा प्लान अब बदल चुका था. वहीँ बीगबाईट के पार्किंग में फुटपाथ पर बने चाय के नुक्कड़ पर हम बैठे हुए थे. इस नुक्कड़ पर हमने सिर्फ गंभीर बातें की थी. जब मन भारी होता था या कुछ बोझिल बातें होती थी, हम इसी नुक्कड़ पर पहुँच जाते थे. बीना शक्कर वाली चाय के साथ मौसम बन चुका था. दोनों चुप थे. अचानक से वह बोली, “कितने खुशनसीब होते हैं वे लोग, जिन्हें मरने के बाद भी कोई ऐसे याद करता है. यदि मैं मर गयी तो क्या तुम मुझे याद रखोगे?”

हमने डांट कर चुप करा दिया था...कुछ देर बाद वह 20 साल की हो गयी थी. कुछ महीने बाद वह साल ही नामुराद हो गया था...

इश्क़ जब तक न कर चुके रुसवा,
आदमी काम का नहीं होता......

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लोग पढ़ते हैं, मुझसे क़िताब बोलती है,
मैं बात करता हूँ, तो शराब बोलती है,
जमाना मानता है वाइज़ मुझे ऐतबार से,
इक पगली है, जो मुझे खराब बोलती है.....!!!

(हमारा नहीं है पर हमारे लिये है. एक बड़े भाई ने खास हमें समर्पित करके करीब दो साल पहले लिखा था. अब तो हर रंग और गहरा गया है. तारीख़ बदलने से पहले एक और बार बहुत सारी शुभकामनाएँ मेरीजां.)

मेरी अधूरी मोहब्बतें.....!!!
(जनवरी 2015)

- Raj Vasani. 😊

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