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दिल्ली का अप्रैल...हर बढ़ती तारीख़ के साथ गर्मियाँ परवान चढ़ती जा रही थी और परवान चढ़ता जा रहा था हमारा मयकश अंदाज़। वो भीषण घुटन का दौर...आँसुओं के नमकीन सागर में उतरते जाने का दौर...कभी पत्थर तो कभी मोम हो जाने का दौर...इसी दौर में कलम ने डायरी पर कुछ यूँ उल्टी किया...
"खुद में गुमशुदा होकर...खुद को तलाशा जाए,
इस पत्थर को राज...कुछ और तराशा जाए।"
कुछ भी उम्मीद के हिसाब से न हो रहा था...हताशा अपने चरम पर...पगली का अंदाज़ भी कलकत्ते का मौसम हुवा जा रहा था। समंदर के लहरों की तरह वो हमसे खेल रही थी...कभी बहुत पास तो कभी इतना दूर की नज़र तक न आ सके। पगली ने एकदिन बङे प्यार से कहा कि हम उसका पीछा छोङ दें और अपनी मोहब्बत किसी और में खोजें। अब पगली का आदेश और हम न मानें...हमने क़ोशिश किया...और हमारे अधूरी मोहब्बतों का सिलसिला अपना चौथा अध्याय लिखते हुवे वाया देवघर ग्वालियर तक जा पहुँचा। निशाचर तो हम पहले ही हो चुके थे...अब कुछ भीषण टाइप हो गये। कुछ दिनों तक भुलावे और मृग-मरीचिका को भी जिया गया पर आत्मा कब किसी और को अपना सकी है...उसे तो अपने घर लौटना ही था। पगली और हम फ़िर से पास आए पर बहुत कुछ लूटाकर...हमारे अंदर बहुत कुछ टूट चुका था और पगली का पागलपन काफी छूट चुका था। दौर-ए-भुलावा अपने डायरी में कुछ यूँ दर्ज करके हम आवारगी के साथ कदमताल कर गये...!!!
"नजर वही रहे,
नजारे बदल गये,
हम बेखबर ही रहे,
और सहारे बदल गये।"
(जारी...)
:- Raj Vasani.... 😉😃
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