Monday, 16 May 2016

मेरी अधूरी मोहब्बतें....

(5)

नेतागिरी में चार सालों के भीषण सक्रियता ने हमें बहुत थका दिया था...और वैसे भी प्रत्यक्ष सक्रियता के उस आखिरी चुनाव में हमने ज़िंदगी के कई पन्नों को अकाल मौत दिया था। अब हम ग्रेजुएट होके आगे की पढ़ाई के लिए पॉलीटेक्निक काॅलेज पहुँच चुके थे...फ़िर से भीङ काफ़ी अज़नबी हो चुकी थी। मालूम नहीं कब हम किंगफिशर से वृद्ध भिच्छुक तक का सफ़र तय किये...पैग में पगली का अक्स खोज़ पाने की तमाम क़ोशिशें नाकाम रही। कभी-कभार फोन या फेसबुक पर हमें छेङकर वो हमारे कलेजे को धधकता छोङ जाती रही...और हम कभी उसको भूलाने तो कभी यादों में ही पगली को जी लेने की ख्वाहिश रखे मदिराफंड को बङा करते रहे। अधूरी मोहब्बतों का सफ़र वाया जेएनयू कब हैदराबाद पहुँचा...कब फ़िर से चोट खा वो पीवीआर वर्ज़न बन गया...हमें ये भी न मालूम...पर ये सबकुछ दिसंबर से पहले जिया जा चुका था।
उस मनहुस साल का वो अंतिम हफ़्ता...साइबेरिया हो जाने की क़ोशिशें करती दिल्ली की वो कंपकपाती बरसाती रात...हम वृद्ध भिच्छुक संग महफ़िल सजाए बैठे थे...इतने दिनों से सुलगता रहा कलेजा उस दिन भिच्छुक के संभाले न संभला और हमने अपनी मोहब्बत का पहला काला पन्ना लिख डाला। पगली को उस रात हमारे द्वारा सुनाई गई लेक्चरनुमा धाराप्रवाह गालियाँ हमारे गुनाहों की सबसे ऊँची इबारतों में से है...ताउम्र हमें ये इबारत अपने लीपे-पूते चेहरे के पीछे का शैतान दिखाता रहेगा। ये आईना हमें आज भी टोकता रहता है और 'गुनाहों का देवता' होने की आत्ममुग्धता में हमें लताङता भी है।
बुराइयों की ये खासियत होती है कि वो हमें अच्छाइयों की कद्र करना सीखा जाती है। हम बेतरह टूटे हुवे थे...आर्थिक स्थिति अपने भीषणतम रूप में...लोगों ने भी स्वाभाविक तौर पर इग्नोरियाना शुरू कर दिया था...फोन जलाकर हम भी खुद को और तन्हा कर चुके थे। पाॅकेट को जब पाला मार जाए तो दुनिया का सबसे बेहतरीन पर्यटनस्थल अपना देस होता है...राजाधीराज द्वारिकाधीश के कर्मभूमि पहुँचकर हम धीरे-धीरे पगली को भूलाने लगे। नये साल के पहले दिन दिल्ली वापसी के बाद युद्ध स्तर पर पढ़ाई किया गया और फेसबुक पर निस्पक्ष लेखन भी शुरू किया गया।
हादसों ने कब किसी को अपनी खबर दिया है! हमारे दरबार का दिन था...दरबारियों ने शराबी दौर में पगली का ज़िक्र कर दिया...हम अपने को रोक न सके...हम लगातार फोन मिलाते रहे और वो हरबार काटती रही...परिणाम हम आत्मघाती हो गये। जानने के बाद पगली हमसे बात तो करने लगी पर अब मोहब्बत की ज़गह डर था उसकी बातों में। पगली को डर था कि अगर हमें कुछ हुवा तो वो बेवज़ह केस-वेस के चक्कर में फंस जाएगी और उसकी पत्रकारिता धरी रह जाएगी। हमें उन तमाम लोगों से नफ़रत होती है जो हमसे सहानुभूति रखे या डरे हमसे। हमने उसदिन बहुत साफ़-साफ़ बात किया तब उसने कहा कि हमसे कभी मोहब्बत किया ही नहीं था उसने...पहले नासमझी थी और अब डर है।
मोहब्बत में ऐसे झटके ही इंसान को शराबी और शायर बना दिया करते हैं...शराबी तो हम पहले से थे ही...अब शायर बन जाने की रूत थी। उन दिनों के कु-वित्व की बानगी अब भी हमारे फेसबुकिया टाइमलाइन की खूबसूरती बढ़ा रहे हैं...उनदिनों का एक कु-विता पेश-ए-नज़र है...

"उधेङबुन में था,
खाली-खाली सा,
तो मैंने उनसे,
ये सवाल कर दिया,
क्यूँ...जा रही हो?
हमसे ही मुँह चुरा रही हो?

वो ज़ोर से हँसी,
थोङा लरज़कर बोली,
मैं आयी ही कब थी?

उनका ये सवाल,
था इतना लाज़वाब,
कि दोस्तों...मुझे भी लाज़वाब कर गयी।"

(जारी...)

- Raj Vasani... 😉😊

Friday, 13 May 2016

मेरी अधूरी मोहब्बतें....

(4)

मार्च का महीना तो वैसे ही बङा रोमांटिक होता है...कामदेव का वसंत...फगुनहट की बयारें...उपर से हमारे जन्मदिन के सिर्फ़ छह दिनों बाद ही पगली का भी जन्मदिन। हमारे बींसवे साल का पहला दिन...पगली के आने की तैयारियाँ...रात की ज़बरदस्त पार्टी के बाद अस्त-व्यस्त पङा दोनों कमरा...जहाँ-तहाँ बिखरे बीयर की बोतलें...केक से सने गंदे कपङे और बेडशीट...मन्चुरियन ड्राय....सिगरेट के बाक़ी बचे फिल्टर्स...खैर बङे मेहनत से एक कमरे की साफ़-सफ़ाई करके रोमांटिक माहौल तैयार किया गया। उत्तेजना अपने चरम पर थी...हमारी ऐसी हालत तो तब भी न हुवी थी जब हम पोलिटिकल सायन्स की परीक्षा देने जा रहे थे। नर्वस पर संतुलन के लिए डेस्कटाॅप पर किशोर दा बजाए गये...एक-एक मिनट के बीस-पच्चीस बरस गुजरने के बाद दरवाजे पर दस्तक हुवी। विलियम वर्ड्सवर्थ लिखे हैं कि हर प्रेमी को अपनी प्रेमिका ट्राॅय की राजकुमारी नज़र आती है...हम भी अपवाद न थे...और हो भी कैसे सकते थे...पगली के उस रूप को अब बंद आँखों से ही महसूस किया करता हूँ। एक कुंवारे के घर में उसकी प्रेमिका की उपस्थिति शराब से भी ज्यादा असर दिखाती है...हमारी साँसें कब जुङी...कब हम एक-दूसरे के कलेजे में उतरे...कुछ ख्याल नहीं...ख्याल है तो बस पगली के फोन में शाम पाँच बजे मनहुस अलार्म का बजना। अब जाना उसकी मज़बूरी थी सो पगली को घर तक पहुँचा आना हमारी भी। काश हमारे पास इतनी ताकत होती कि समय को कुछ देर के लिए थाम सकते...पर वो बेरहम रफ़्तार चलता रहा और हमारे कलेजे पर पहाड़ जैसा बोझ रखता गया। भारी मन से बाहर निकलके हमने ऑटो लिया और पगली को पहुँचा आया।
मुद्दतें गुजरी पर वो दिन लौटकर न आ सका...जबकि वैसी तमाम मनहुस शामें आई और हम उन शामों को हार्ड राॅक कैफ़े में बडवाइज़र मैग्नम, मन्चुरियन ड्राय, क्लासिक माइल्ड, और अपने बेहिसाब तन्हा ग़मों के साथ रातों में तब्दील करते रहे...और किसी अंज़ान शायर के शब्दों के साथ बेकसूर पगली पर क़यामत तक ये तोहमत लगाते रहे, " ये तेरे आँखों की तौहीन है...कि तेरा आशिक़ शराब पीता है"।
अब बारी थी पगली के उन्नीस बरस पूरा करके आगे बढ़ जाने का...ये 2012 आगे चलके इतना अहम और बेरहम हो जानेवाला था...मालूम न था। खैर वक़्त था पगली के हैप्पी जन्मदिन का...पर हम महज़ पाँच-सात दिनों में ही फ़िर से कंगाल हो चुके थे...होते भी क्यों न...चाहनेवालों के गुटबाजी ने पार्टियों की संख्या को बेतरह बढ़ा जो दिया था! हम अबतक चार्वाक के उधार लेकर घी(शराब) पीनेवाली कहावत को चरितार्थ करने लगे थे...सो पगली के जन्मदिन पर उसी से उधार लेकर पार्टी दिया गया। आगे भारी मात्रा में परीक्षाएँ हमारा इंतज़ार कर रही थी...पर हमने कभी इनका बहुत लोड न लिया...परिणाम बढ़िया कहे जाने लायक था भी। सेशन बदलते ही यूनिवर्सिटी में अगले चुनावों का दौर...और ये दौर बहुत खास इसलिए कि इसने पगली को हमसे बिना वज़ह बहुत दूर जाते देखा...इसने हमें कागज़ों पर बर्बाद होते देखा...इसने हमें अपने ही पैर पर कुल्हाङी चलाते कालिदास बनते देखा...इसने हमें नशे में बेतरह डूब जाते देखा...इसने हमें संघी बेहूदगी से बाहर आते देखा...इसने हमें कई चेहरों में अपने पगली को खोजते देखा...इसने नशे में मदहोश कम बेहोश ज्यादा वाली हालत में सङकों-गलियों से हमें उठाते दोस्तों की वो काली रातें भी देखा।
आज भी उन दिनों और रातों की यादें आत्मा को कलपा के रख देती है...अब आज और न लिखा जाएगा...नेतागिरी और मोहब्बतों की उन दर्दीली यादों ने कंठ को भी और उँगलियों को भी जाम करके रख दिया है।
2012 का वो मनहुस अक्टूबर महीना...चुनावी भागदौड़ अपने चरम पर...पगली की ताबङतोङ शिकायतें...खैर तमाम व्यस्तता को परे हटा पगली से माॅडल ध विलेज मिला गया। हमें मालूम न था कि पगली आखिरी मुलाकात करने आई है...उस हसीन मुलाकात के बाद अचानक ही पगली को काॅमर्स छोङके पत्रकारिता का शौक चरचराया और वो हमें अलविदा कहके सुरत चल पङी। तब हम इतने बुरे न थे...पर अभीतक हम वज़ह की तलाश में कोलंबस हुवे जाते हैं। पगली ने हमें नज़रअंदाज़ करना शुरू किया...और जैसा की होता है कि किसीको अगर सबसे बडी़ गाली बिनबोले देनी हो तो उसे नज़रअंदाज़ करते रहो... चुनावी जिम्मेदारियों के कारण हम अपने तक़लीफ़ को अंदर में बाँध के रखे। ये वो समय था जब हमें उसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत थी...नेतागिरी ने पुराने दोस्तों को दुश्मन बना दिया था...हम बेहद अकेले थे...सबकुछ जानते हुवे भी पगली हमें मिनट-दर-मिनट मरता छोङ गई वो भी वज़ह बताए बिना।
एक अर्से बाद वो फ़िर से आई ज़िंदगी में पर अब तमाम छलावे और शर्तें लिए हुवे...और इस अर्से में हमने कभी "पिया" तो कभी "राजकुमारी" में अपने पगली को खोज़ा। एक असफ़ल प्रेमी चलता-फ़िरता न्यूक्लियर बम होता है...सो हमारे फटने से पगली के अलावा हर वो कोई झुलसता रहा जो हमारे क़रीब आया।
मुद्दतें गुजरी...हम अपने पगली को न पा सके...वो वापस आई भी तो "पुराने बोतल में नई शराब' के तर्ज़ पर...अफ़सोस कि हमने हमेशा ही पुरानी शराब को पसंद किया है...परिणाम ये कि हम मौत तक के लिए नशे के आगोश में जा पहुँचे...और अब उसकी दिखावटी क़ोशिशें नाकाफ़ी होनी ही थी।

(जारी...)

- Raj Vasani. (મોરી ચા.) 😊😉

मेरी अधूरी मोहब्बतें....

(4)

मार्च का महीना तो वैसे ही बङा रोमांटिक होता है...कामदेव का वसंत...फगुनहट की बयारें...उपर से हमारे जन्मदिन के सिर्फ़ छह दिनों बाद ही पगली का भी जन्मदिन। हमारे बींसवे साल का पहला दिन...पगली के आने की तैयारियाँ...रात की ज़बरदस्त पार्टी के बाद अस्त-व्यस्त पङा दोनों कमरा...जहाँ-तहाँ बिखरे बीयर की बोतलें...केक से सने गंदे कपङे और बेडशीट...मन्चुरियन ड्राय....सिगरेट के बाक़ी बचे फिल्टर्स...खैर बङे मेहनत से एक कमरे की साफ़-सफ़ाई करके रोमांटिक माहौल तैयार किया गया। उत्तेजना अपने चरम पर थी...हमारी ऐसी हालत तो तब भी न हुवी थी जब हम पोलिटिकल सायन्स की परीक्षा देने जा रहे थे। नर्वस पर संतुलन के लिए डेस्कटाॅप पर किशोर दा बजाए गये...एक-एक मिनट के बीस-पच्चीस बरस गुजरने के बाद दरवाजे पर दस्तक हुवी। विलियम वर्ड्सवर्थ लिखे हैं कि हर प्रेमी को अपनी प्रेमिका ट्राॅय की राजकुमारी नज़र आती है...हम भी अपवाद न थे...और हो भी कैसे सकते थे...पगली के उस रूप को अब बंद आँखों से ही महसूस किया करता हूँ। एक कुंवारे के घर में उसकी प्रेमिका की उपस्थिति शराब से भी ज्यादा असर दिखाती है...हमारी साँसें कब जुङी...कब हम एक-दूसरे के कलेजे में उतरे...कुछ ख्याल नहीं...ख्याल है तो बस पगली के फोन में शाम पाँच बजे मनहुस अलार्म का बजना। अब जाना उसकी मज़बूरी थी सो पगली को घर तक पहुँचा आना हमारी भी। काश हमारे पास इतनी ताकत होती कि समय को कुछ देर के लिए थाम सकते...पर वो बेरहम रफ़्तार चलता रहा और हमारे कलेजे पर पहाड़ जैसा बोझ रखता गया। भारी मन से बाहर निकलके हमने ऑटो लिया और पगली को पहुँचा आया।
मुद्दतें गुजरी पर वो दिन लौटकर न आ सका...जबकि वैसी तमाम मनहुस शामें आई और हम उन शामों को हार्ड राॅक कैफ़े में बडवाइज़र मैग्नम, मन्चुरियन ड्राय, क्लासिक माइल्ड, और अपने बेहिसाब तन्हा ग़मों के साथ रातों में तब्दील करते रहे...और किसी अंज़ान शायर के शब्दों के साथ बेकसूर पगली पर क़यामत तक ये तोहमत लगाते रहे, " ये तेरे आँखों की तौहीन है...कि तेरा आशिक़ शराब पीता है"।
अब बारी थी पगली के उन्नीस बरस पूरा करके आगे बढ़ जाने का...ये 2012 आगे चलके इतना अहम और बेरहम हो जानेवाला था...मालूम न था। खैर वक़्त था पगली के हैप्पी जन्मदिन का...पर हम महज़ पाँच-सात दिनों में ही फ़िर से कंगाल हो चुके थे...होते भी क्यों न...चाहनेवालों के गुटबाजी ने पार्टियों की संख्या को बेतरह बढ़ा जो दिया था! हम अबतक चार्वाक के उधार लेकर घी(शराब) पीनेवाली कहावत को चरितार्थ करने लगे थे...सो पगली के जन्मदिन पर उसी से उधार लेकर पार्टी दिया गया। आगे भारी मात्रा में परीक्षाएँ हमारा इंतज़ार कर रही थी...पर हमने कभी इनका बहुत लोड न लिया...परिणाम बढ़िया कहे जाने लायक था भी। सेशन बदलते ही यूनिवर्सिटी में अगले चुनावों का दौर...और ये दौर बहुत खास इसलिए कि इसने पगली को हमसे बिना वज़ह बहुत दूर जाते देखा...इसने हमें कागज़ों पर बर्बाद होते देखा...इसने हमें अपने ही पैर पर कुल्हाङी चलाते कालिदास बनते देखा...इसने हमें नशे में बेतरह डूब जाते देखा...इसने हमें संघी बेहूदगी से बाहर आते देखा...इसने हमें कई चेहरों में अपने पगली को खोजते देखा...इसने नशे में मदहोश कम बेहोश ज्यादा वाली हालत में सङकों-गलियों से हमें उठाते दोस्तों की वो काली रातें भी देखा।
आज भी उन दिनों और रातों की यादें आत्मा को कलपा के रख देती है...अब आज और न लिखा जाएगा...नेतागिरी और मोहब्बतों की उन दर्दीली यादों ने कंठ को भी और उँगलियों को भी जाम करके रख दिया है।
2012 का वो मनहुस अक्टूबर महीना...चुनावी भागदौड़ अपने चरम पर...पगली की ताबङतोङ शिकायतें...खैर तमाम व्यस्तता को परे हटा पगली से माॅडल ध विलेज मिला गया। हमें मालूम न था कि पगली आखिरी मुलाकात करने आई है...उस हसीन मुलाकात के बाद अचानक ही पगली को काॅमर्स छोङके पत्रकारिता का शौक चरचराया और वो हमें अलविदा कहके सुरत चल पङी। तब हम इतने बुरे न थे...पर अभीतक हम वज़ह की तलाश में कोलंबस हुवे जाते हैं। पगली ने हमें नज़रअंदाज़ करना शुरू किया...और जैसा की होता है कि किसीको अगर सबसे बडी़ गाली बिनबोले देनी हो तो उसे नज़रअंदाज़ करते रहो... चुनावी जिम्मेदारियों के कारण हम अपने तक़लीफ़ को अंदर में बाँध के रखे। ये वो समय था जब हमें उसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत थी...नेतागिरी ने पुराने दोस्तों को दुश्मन बना दिया था...हम बेहद अकेले थे...सबकुछ जानते हुवे भी पगली हमें मिनट-दर-मिनट मरता छोङ गई वो भी वज़ह बताए बिना।
एक अर्से बाद वो फ़िर से आई ज़िंदगी में पर अब तमाम छलावे और शर्तें लिए हुवे...और इस अर्से में हमने कभी "पिया" तो कभी "राजकुमारी" में अपने पगली को खोज़ा। एक असफ़ल प्रेमी चलता-फ़िरता न्यूक्लियर बम होता है...सो हमारे फटने से पगली के अलावा हर वो कोई झुलसता रहा जो हमारे क़रीब आया।
मुद्दतें गुजरी...हम अपने पगली को न पा सके...वो वापस आई भी तो "पुराने बोतल में नई शराब' के तर्ज़ पर...अफ़सोस कि हमने हमेशा ही पुरानी शराब को पसंद किया है...परिणाम ये कि हम मौत तक के लिए नशे के आगोश में जा पहुँचे...और अब उसकी दिखावटी क़ोशिशें नाकाफ़ी होनी ही थी।

(जारी...)

- Raj Vasani. (મોરી ચા.) 😊😉

Wednesday, 4 May 2016

मेरी अधूरी मोहब्बतें....

(3).

एक कहावत है...अगर किसी को बर्बाद करना हो तो उसे पहले तो मोहब्बत करा दो...अधिक बर्बाद करना हो तो नशे की लत पकङा दो...इतने में भी बात न बने तो उसे जुआ खेलना सीखा दो...अंतिम हथियार ये कि उसे नेता बना दो। हम बस जुआरी न थे...बाक़ी सारे गुण वो भी थोक में...बर्बाद तो होना ही था। पर नहीं हुए...हमें हमारी मोहब्बत ने बङे शिद्दत से बचाए रखा। युनिवर्सिटी के हर चुनावी मौसम के बाद हमारे आर्थिक मंदी का दौर चला करता था...घर में बिना बताए लौंडा नेता जो बन रहा था...तो चुनावों में की गई लेनदारियाँ मौनसून के जाते ही देनदारियाँ बन जाया करती थी। अब तो मुफ़लिसी में आटा गीला करने को हमारे धुएँ में उङते फ़िक्र का शौक ही काफ़ी था...उपर से मंदिरों(मदिरा भी पढ़ सकते हैं :p) में किए जानेवाले गुप्तदान भी...मतलब ये कि हम 1930 वाला जर्मनी हो जाया करते थे। दो महीनों से होस्टल का किराया नहीं दिया गया था और उससे भी बङी टेंशन ये कि खाना बनाने वाली आंटी के भी पैसे बाक़ी थे...तब हम होस्टल में रहते थे... आर्थिक स्थिति ने उनकी छंटनी का रास्ता तैयार कर दिया पर इसके लिए भी दो महीने का उनका बकाया चुकाने की समस्या। पगली को साफ़-साफ़ तो न कह सके...आखिर अंदर बैठे मर्द का इगो हर्ट हो जा रहा था...फ़िर भी उसे मोहब्बत के बेतार से अंदाज़ा लग ही गया। सुबह-सुबह उसका बुलावा...पाॅकेट में रिंगरोड तक पहुँचने लायक भी पैसे नहीं...खैर, अख्तर पान वाले से सौ रूपये और एक क्लासिक माइल्ड लेकर निकला गया। वहाँ कुछ देर बातें हुई फ़िर हम वापस घर को लौटे...परेशान थे सो आते ही बिस्तर पर औंधा हो गए...कुछ देर बाद उठे तो शर्ट के पाॅकेट में लाल-पीले कागज़ों की झलक मिली। स्थिति भिखारियों वाली...अचानक एक हजार के और दो पाँच सौ के नोट...तुरंत उसे फोन करके डाँटा गया पर उपरी मन से...उन नोटों की क़सम अंदर से बेहद शांति और ठंढक मिल रही थी।
गुजरते महीनों के साथ-साथ मौसम भी बदलता जा रहा था...सितंबर अक्टूबर के रास्ते होता हुवा नवंबर में तब्दील होने को बेक़रार था...पर हमारी आर्थिक मंदी अभी जाने को तैयार न थी। त्योहारों का अंतहीन सिलसिला शुरू हो चुका था...धनतेरस की पूर्व संध्या...पाॅकेट और एटीएम बिलकुल खाली...खैर भारतीय जुगाङ टेक्नालॉजी से मुद्रा जमा किया गया और मदिरा को चढ़ावा पहुँचा दिया गया। अपने प्रिय मंदिर को दान करने में हमको कलयुगी कर्ण समझिए...सो खाने की भी परवाह न किए और दौर-ए-जाम में मस्त हो गए। देर रात तक पगली हमारे फोन के इंतज़ार में जागती रही पर हम ज़हर से गला तर करके भोलेनाथ हो जाने में व्यस्त...तकरीबन 11 बजे पगली के फोन से थोङा खलल पङा तो काॅलबैक की परंपरा का पालन किया गया। दुनिया जानती है कि जब पाॅकेट ठंढा होता है तब मन गरमाया रहता है सो उसे पहली बार इतना भीषण और वो भी बेवज़ह डाँटा गया...और फ़िर फोन काटके हम बिस्तर के ठौर में पहुँचे। सुबह दरवाजा पीटे जाने की आवाज़ से जागे...दरवाजा खोले तो पगली को खङा पाया...हम फ़िर भङक पङे...पर वो बेचारी रात में हमारे भूखे सो जाने के खबर के कारण खाना बनाकर लाई थी...वो भी तब जब उसका घर से निकल पाना बहुत मुश्किल था। प्यार से डाँटकर पगली ने अपने हाथों से खाना खिलाया और अपना ख्याल रखने की ताक़ीद कर घर को गई। शाम जब वो अपने घरवालों के साथ धनतेरस के शाॅपिंग को गई तो छुप-छुपाके हमारे लिए चम्मचों का एक सेट खरीद लाई।
आज भी हमने उन चम्मचों को जला खाना तक स्वादिष्ट करते पाया है और उस टिफिन को अपने उपेक्षा पर रोते पाया है...ये भी हमारी मोहब्बत की धरोहरों में से है।
राजकोट की सर्दी के प्रचंड होते-होते पाॅकेट गरमाने लगा था...वज़ह अहमदाबाद से बङे भाई का भेजा जाने वाला परसाद...सो आशिक़ी अपने मस्ततम दौर में। काॅलेज का इंटरनल इधर खत्म हुवा और उधर धुआँधार तारीख़ों का दौर शुरू हुवा। तब हम पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए दिल्ली जाने के मूड में थे...सो अहमदाबाद वाले भाई के आदेश से टाॅफेल का फाॅर्म भरा गया...परीक्षा के लिए कई तारीख़ों का विकल्प मिला था...पर हमने चुना  20 नवम्बर...हमारा जन्मदिन। एक तो बङका अंग्रेजी परीक्षा और उपर से हमारा जन्मदिन...स्वाभाविक था पगली का उसदिन पागलपन के चरम पर पहुँच जाना। अमीन मार्ग मिला गया...वहाँ से ऑटो लेकर चौधरी हाईस्कूल....हम अंदर गये परीक्षा देने और पगली वहीं बाहर हमारा इंतज़ार करते रही। खैर पेपर अच्छे से निपटा के बाहर निकला गया...पगली को वहीं देखके हम एकदम हैरान पर बेतरह खुश भी। अब वहाँ से काॅफी हाऊस...केक-वेक काटा गया...जन्मदिन एकदम चउकस टाइप हैप्पी-हैप्पी।
जन्मदिन तो बहुत मनाया गया हमारा...शैंपेन से लेकर खून तक भी बहा...पर ऐसी खुशी न मिल सका कभी...कुछ ही दिन बाद आया टाॅफेल का रिजल्ट हमें फ़िर से ताज़ा और पगली को और यादगार बना गया।
शायद वो पगली का प्यार ही था जो हमें तब राजकोट और गुजरात छोङकर न जाने दिया...पर अफ़सोस किसको है!

(जारी...)

- Raj Vasani. (મોરી ચા.) 😊😉