Tuesday, 26 April 2016

"मेरी अधूरी मोहब्बतें"....

(2)
ग्रेजुएशन दूसरे साल की फाइनल परीक्षा एक हफ़्ते की दूरी पर...और हम इश्कियाने मुड के व्यस्तता में मस्त...खैर खुमारी उतरी तो पता ये चला कि नेतागिरी ने पढ़ाई को लील रखा है। उस दौर के तमाम साथी आज भी वो साल याद रखे ही होंगे...केस-दर-केस...लङाई-दर-लङाई...हालात ये कि हम जितना थाने-कोर्ट-कचहरी में उपस्थित रहे उससे बहुत कम क्लास और काॅलेज में। हालात ऐसे थे कि हमारे पास पूरे सिलेबस में से एक भी क़िताब नहीं था...परेशानी के सारे सबब पगली को बताया गया...उस समय हमने उसे दुनियाभर के तमाम मोटिवेशनल लीडरों से बेहतर पाया। बिना हथियार और टूटे मनोबल के साथ सामने आन पङे महाभारत की तैयारियाँ शुरू हुई...पर सकारात्मक बस इतना कि द्रौपदी हो चुकी हमारी परिस्थिति को संभालने पगली श्रीकृष्ण बन चुकी थी।
हर पेपर से पहले वाली रात को 11 बजे तक सुला देना और भोर के 3 बजे तक उठा देना...उसके अपने नमाज़ों से ज्यादा क़ीमती हो चुका था। हम भी खोया फाॅर्म पाने लगे और जैसे-तैसे सामग्रियाँ जमा करके पेपर-दर-पेपर देने लगे। रिजल्ट आने से पहले वो गेबन शाह हज़रत की दरगाह पर चुनरी-चादर के घूस की पेशकश कर आई। नहीं मालूम कि ये असर हमारे पगली के दुवाओं में था या फ़िर पक्के नमाज़ी टाइप हमें सुलाने और जगाने की जिम्मेदारी में था...या फ़िर हमारे जीतोङ़ मेहनत में था...पर वो असर आज भी उसको समर्पित टाॅपर सर्टिफ़िकेट व टाॅपर ट्राॅफी के रूप में धरोहर टाइप हमारे पास सुरक्षित रखा है।

बिना रूसवाईयों के कैसी मोहब्बत? अब ये दौर रूठने-मनाने का था...कभी हम रूठे तो कभी हमारी पगली। काॅलेजों का हर नया सेशन(सत्र) नेतागिरी के चक्कर में हमारे लिए व्यस्तता से भरा होता था...लाज़िमी है कि अब हम उसे समय नहीं दे पा रहे थे। काॅलेज में चुनाव बस कुछ दिनों के बाद...एडमिशन्स के लिस्ट हमसे दुश्मनी निकालने आए जा रही थी और उधर पगली का एग्जाम भी था। हम लाख कोशिशों के बावज़ूद भी उसका सहारा हो पाने में असफ़ल हो रहे थे...तभी किसी प्रचंड फेसबुकिया राष्ट्रवादी कवि(?) के चक्कर में कुछ गलतफ़हमियाँ हुई और हमारी मोहब्बत ने पहली बार भीषण महाभारत का रूप धारण किया। खैर...सुबह होश संभालते ही हम तैयार हुए और तमाम चुनावी ज़िम्मेदारियों को एक किनारे रख उसके पास पहुँचे...सेंटर था करणपरा मेईन ओफिस....एक-डेढ़ घंटे के सफ़र में सीने पर पगली का मुक्का और सिर संभालते हुए हम मंज़िल तक पहुँचे। आँखें सुजाए बैठे अपनी ज़ान को मिठाईयाँ खिलाए...तुरंत कालावाड रोड की ओर भागे...वापस आके रिसीव किए और घर तक पहुँचाए। सिलसिला तबतक चला जबतक कि उसके पेपर खत्म न हो गये। न मालूम कि कमी कहाँ छूटी...हमारा बेहूदगी भरा रूख या पढ़ाई को किनारे रखती पगली की दीवानगी...रिजल्ट वैसा न हो सका जैसी उम्मीदें थी। वो बुरा रिजल्ट ही हमारे मोहब्बत का पहला अपराधबोध है...आज भी हमें ये कुफ़्र सा लगता है और सज़ाएँ भी शायद इसीलिए नाकाफ़ी हो जाती हैं।
माहौल कुछ-कुछ ऐसा ही था जैसा कि आज...बस फ़र्क इतना की वो देशभर का मुद्दा न होकर हमारे काॅलेज तक ही सीमित था। सुबह से भयानक बरसात...काॅलेज में वोटिंग का दिन...हमारा काफ़ी-कुछ दाँव पर...भीगते हुए जैसे-तैसे वोट पङे। शाम उसदिन भी आज जैसा ही सिंदूरी हो गया था...और हम थे कि रिजल्ट के इंतज़ार में बेचैन...अंदेशा हो गया कि हम बहुत बुरी तरह हारने वाले हैं और हुआ भी वही...सारे सीट हारकर घर भाग जाने की हङबङी में अधिकांश साथी निकल लिए...हम बेहोश टाइप वहीं टिके रह गए। पगली हमसे भी ज्यादा बेसब्री से रिजल्ट का इंतज़ार कर रही थी...पाॅकेट में रखा फोन कांपा...पगली को काॅलबैक करके रिजल्ट बताया गया...और फ़िलहाल फोन न करने का आदेश देकर बीग बाजार का रूख किया गया। अपने अतिप्रिय मंदिर से पतित पावन राम मंदिर के पास से बीयर की बोतल खरीदकर ग़म को भगाने का दौर शुरू हुआ...उधर पगली लगातार फोन कर-करके परेशान। सुबह जब खुमारी उतरी तो 26 मिस्डकाॅल और क़रीब इतने ही मैसेजों को गलती की गवाही देते पाया...पगली ने नाराज होके पूरा आसमान सिर पे उठा रखा था...मनौती की शर्त ये रही कि हम एक घंटे में काॅफी हाऊस मिल रहे हैं। आदतन हम लेट पहुँचे...पर कुछ देर के बहस के बाद हम अपने पगली को मनाने में सफ़ल रहे। हम कमजोर थे तब...तभी बीयर को शरणागत हुए थे और यह उसकी मोहब्बत को और मज़बूत करने की वज़ह बन गया। उसका वो अथाह-अनंत समर्पण...पगली ने अपनी आत्मा तक को हमारे लिए निकाल के रखा था...पर हम बेहूदों ने कब क़द्र जाना है इस समर्पण की? क़यामत तक वो अपने मोहब्बत से उस शराब को भगा देने का जतन करते रही पर हम अपने तमाम बेहूदगी को फ़कीराना-फ़क्खङपना बताके खुद को महान साबित करने का प्रयत्न करते रहे।

(जारी...)

- Raj Vasani. (મોરી ચા.) 😊😉

Saturday, 23 April 2016

"मेरी अधूरी मोहब्बतें"....

(1)

अप्रैल 2014 की बात है...मोदी जी जब जंतर-मंतर पर शोभायमान थे...हम भी मीडिया के बहाए बयार में बहक के टीवी पर जा पहुँचे थे। उनदिनों भूख ही हमारी प्रचंड कमजोरी हुआ करती थी बावजूद सुबह से उपवास जारी। घंटे-दर-घंटे फेसबुकिया हवाबाज़ी भी अपने चरम पर...मार फोटू और मार स्टैटस दहला के रखे थे अपने फेसबुकिया दीवार को। वो पगली इसी हवाबाज़ी पर इम्प्रेस हो गयी और बङका क्रांतिकारी समझ बैठी। शामें तब बङी हसीन हुआ करती थी...परिणाम ये कि हर शाम को उपवास खान मार्केट में मैक्डोनाल्ड्स के आउटलेट पर बर्गर तोङते टूटता था। ऐसी ही एक हसीन शाम थी और बर्गर तोङती क्रांतिकारिता थी...फोन के स्क्रीन पर तभी एक अंजान नं फ्लैश होने लगा...मुँह में भरे बर्गर को जैसे-तैसे निगल फोन उठाया गया। दस-बारह सेकेंड के फ़र्ज़ी हैलो-हैलो के बाद पहली बार उस पगली की आवाज़ कानों में उतरी...और उतरी भी ऐसी की सीधे दिल में ज़गह कर गई।
बस यहीं से हमारे राह ने मोङ पकङा और ज़िंदगी का वो अध्याय शुरू हुआ जो अभीतक किसी को पढ़ाया नहीं गया...

वो दौर था जब ऑर्कूट चिरकूटियाने लगा था और थोक में लोग फेसबुक पर पलायन करने लगे थे...इसी दौर में फेसबुकिया मोहब्बत भी परवान चढ़ा। काली रातें चैट बाॅक्स में उजाला पाती रही...और नासमझी से समझ की ओर पलायन करते हम अपने पहले सच्चे प्यार को महसूस करने लगे। मोहब्बतें अक्सरहां एकतरफ़ा हुआ करती हैं...खासकर तब जब हम जैसे बेहूदा दीवानगी की हदों तक पहुँच जाएँ। एकतरफ़ा कब दोतरफ़ा बन गई...ना हमें मालूम ना उस पगली को। राजकोट के गर्मियों के दिन थे...फ़ोन पर तारीख़ फिक्स किया गया...भकितनगर सर्कल... हम थे कि दीदार-ए-परान को बेताब और पगली आई मुँह पर नकाब बाँधे। धङकनें कब धौंकनी बनी...कब हम उसको मंत्रमुग्ध सा फाॅलो करने लगे...कुछ पता नहीं। होश तब आया जब पगली ने लताङते हुए बोला कि ऐसे किसी अंजान लङकी के पीछे आते शरम नहीं आती...और होश भी ऐसा आया कि इगो हर्ट हो गया...परिणाम हम एक बीना शक्कर वाली चाय लगाकर के बुलेट पर सवार और रूख किए कालावाड रोड की ओर। लगातार आते फोन को इग्नोरियाते...और मन में भीष्म टाइप प्रतिज्ञा करते...घायल दिल लेके घर पहुँचे। पर वो क्या है न कि हम हर मोहब्बत बङी शिद्दत से किए हैं...शाम को मौसम ठंढाते हुए फोन करके बतियाए और प्रपोज कर दिए..

मोहब्बतें सोचा नहीं करती...हमने भी बङी शिद्दत वाला मोहब्बत किया...तो हम कैसे सोचते? पगली को हमारा प्रपोजल फैशनेबुल टाइप का महसूस हुआ...सो सिरे से हमको खारिज़ कर दिया गया...पर फेसबुक का चैटबाॅक्स एकाध दिन के अकाल के बाद फ़िर से गुलजार होने लगा और फोन पर भी बातें लम्बी होने लगी। मुलाकातों का...बेचैनियों का...आकर्षण का...दोतरफ़ा दौर धीरे-धीरे ही सही पर जोर पकङ रहा था। मुलाकातें काॅफी हाऊस से  अमीन मार्ग ... क्रिस्टल मोल....रेसकोर्स रिंगरोड होते हुए फ़िर से भकितनगर सर्कल पहुँची...और वहाँ पहुँचते ही अंदर का गुबार ज्वालामुखी सा फटा और हमने धुआँ उङाके अपना कलेजा निकाल रख दिया। अपने आदर्शपुरुष नेताजी सुभाष की क़सम...तुम हमें हमारी मिमि(नेताजी एमिली शैंकल को इसीनाम से पुकारा करते थे) लगती हो...पवित्रता अपना असर छोङ के रहती है...और वैसे भी हम उसके अंदर घर बना ही चुके थे...सो हम हैप्पिली कमिटेड हो गए।

(जारी...)

:- Raj Vasani. (મોરી ચા.) 😊😉

Monday, 18 April 2016

गोधरा, गुजरात 2002... (મોરી ચા.)

गोधरा, गुजरात 2002।

यही पहचान है मोदी जी की और इसी लिए उसको हमने प्रधानमन्त्री बनाया है।

मोदी जी गोधरा की रोटी खा रहे है और हम उन्हें घी लगा कर रोटी उसी के लिए खिला रहे है।

हमने नरेंद्र मोदी को मोदी जी बनाया है और हम ही है जो 2019 में उन्हें फिर नरेंद्र मोदी बना देंगे।

ना ना ना! यह सारे उदगार बिल्कुल भी मेरे नही है, यह सारे उदगार मोदी जी के कुछ कट्टर समर्थको के हैं। हाँ यह अलग बात है की शब्द मेरे है लेकिन सोशल मिडिया पर मैंने कुछ लोगों को यह कहते  हुए देखा है। मैंने अभी तक यही कोशिश की है की इन उदगारों को, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानते हुए उस पर कोई टिप्पणी नही की जाए लेकिन अब मुझे लगता है की लोगों को एक यथार्थ से परिचय करा दिया जाना चाहिए ताकि भारत के भविष्य में होने वाली घटनाओ का वो लोग कोई संकीर्ण आंकलन करने की भूल न करे।

आप लोग एक बात अपने दिमाग से बड़े आराम से निकाल दे की गोधरा के कारण नरेंद्र मोदी, मोदी जी बने है। हाँ यह अलग बात है कुछ लोगो ने 2002 को देख कर नरेंद्र मोदी को प्रधानमन्त्री के रूप में देखने का सपना देखा था। हकीकत यह है की गोधरा में 57 कारसेवको की हत्या के आक्रोश में गुजरात में जो दंगे हुए थे, जिसमे मुसलमान के साथ हिन्दू भी मारे गए थे। उस वक्त केंद्र में अटलबिहारी बाजपेयी जी प्रधानमन्त्री थे जो अपनी उदारवादी छवि को लेकर बड़े सचेत थे। शुरू में जब कांग्रेस और अन्य सेकुलर जमात ने गुजरात के दंगो के लिए मोदी जी पर दोषारोपण लगाया था तब उन लोगो का असली निशाना दिल्ली में अटलबिहारी बाजपेयी की सरकार थी। वो लोग, इस दंगे का इस्तमाल, बीजेपी को मुस्लिम विरोधी और एनडीए सरकार को असफल सिद्ध करने के लिए कर रहे थे। उन लोगों ने, बाजपेयी जी के करीबी लोगों के माध्यम से यह दबाव बनाया की गुजरात के कारण उनकी छवि खराब हो रही है और इस लिए मोदी को गुजरात के मुख्यमंत्री पद से हटा दिया जाना चाहिए। बाजपेयी जी भी अपनी सेकुलर छवि के प्रति इतना सचेत थे की सारी सच्चाई जानने के बाद भी वो मोदी से हटाने को तैयार हो गए थे। लेकिन उस वक्त, बाजपेयी जी की इच्छा के विरुद्ध पूरा संघटन मोदी जी के पक्ष में खड़ा हो गया था और वह मुख्यमंत्री बने रहे थे।

इसी निर्णय के बाद से ही सारी मीडिया , वामपंथीयों बुद्धजीवीयों और मुस्लिम वोट बैंक पर जीने वाले दलो ने मोदी के खिलाफ दुष्प्रचार शुरू कर दिया था। उस दुष्प्रचार का असर यह है की जिस मीडिया  के लोगों  को, लोग आज "प्रेस्टीटूटेस" कह कर बुलाते है, वहीं लोग उनकी पिछले 14 साल से चले आरहे झूठ पर विश्वास कर रहे है और उसी कारण से उन्होंने नरेंद्र मोदी को मोदी जी बनाया है यह मान कर बैठे गए है।

क्या आप लोगों ने कभी यह सोंचा है की 2002 से ही क्यों पूरी मीडिया , विदेशी धन से चलने वाले एनजीओ और सेकुलर जमात के प्रचार तन्त्र , एक राज्य के, पहली बार बने मुख्यमंत्री का राजिनैतिक जीवन समाप्त करने के लिए इतनी शिद्दत से लगा हुआ है?

क्या यह लोग इतने दूरदर्शी थे की उन्हें 2002 में ही उन्हें मालूम था की यह नरेंद्र मोदी नाम का व्यक्ति 2014 में कांग्रेस को खत्म कर देगा?

क्या 2002 में इन सबको यह एहसास था की मुस्लिम वोट के बिना भी सरकारे बन सकती है?

ऊपर के यही तीन प्रश्न सिद्ध करते है की नरेंद्र मोदी के विरोध की कहानी कुछ और है जिस पर न सेकुलर मण्डली बोलती है और न ही स्वयं बीजेपी के लोग स्वीकार करते है।

कांग्रेस, मीडिया और अन्य राजिनैतिक दलो के लिए गोधरा,गुजरात एक ढाल है जिसके पीछे यह लोग अपने मोदी विरोध के कारणों को छुपाने में बेहद सफल रहे है। क्या आपको याद है की मोदी की गुजरात में मुख्यमंत्री बनाया गया था तब गुजरात का क्या हाल था? 2001 में जब केशुभाई पटेल को हटाकर, मोदी को मुख्यमंत्री बनाया गया था, तब बीजेपी की सरकार भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता में डूबी हुयी थी और भुज में आये भूकम्प से बनी परिस्थितयों को संभालने में निष्फल रही थी। इन परिस्थितयों में नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री बने तो उनकी कार्यशैली का सबसे पहला शिकार भ्रष्टाचार हुयी थी। जिस दिन से कुर्सी पर बैठे थे उस दिन से जितने दलाल और लोबईस्ट थे उनकी दुकाने उजड़ गयी थी। गुजरात एक व्यापारी समाज का राज्य है जहाँ, धंदे में सब चलता था, जिसको खत्म कर दिया गया था।

इन दलालो और लोबईस्ट में मीडिया के पत्रकार और उनके मालिक भी थे। कांग्रेसी संस्कृति में, यह वर्ग हमेशा से पल्लवित हुआ था, जिस पर रोक लग गयी थी। उनकी कार्यशैली का दूसरा शिकार गुजरात के अवैध धंदे थे, जिसमे अवैध शराब और स्मगलिंग मुख्य थी। इस अवैध धंदे में मुस्लिम समुदाय का अच्छा दखल था, जो नए शासन में चरमरा गया था। गुजरात में जो मोदी जी के तेवर दिख रहे थे उससे गुजरात की कांग्रेस, बीजेपी के मोदी विरोधी और बड़े दलाल तीनो ही त्रस्त थे, जिसके कारण गुजरात में अशांति फ़ैलाने के लिए गोधरा की घटना को अंजाम दिया गया था। क्योंकि कांग्रेस के लोग उसमे शामिल थे इसलिए मीडिया ने शुरू से इस बात को दबा दिया था। जब इस घटना के आक्रोश में दंगे भड़के तब मोदी ने दंगे रोकने के लिए अपनी पुलिस को पूरी छूट  दी थी, जिसका परिणाम यह हुआ की जिन मुहल्लों या इलाको में पहले पुलिस घुसने की हिम्मत नही करती थी, वो वहां पहुंची और सख्ती से दंगे रोके गए थे।

गुजरात में पुलिस का उन इलाको में पहुचना जहाँ कभी पुलिस का कानून नही चलता था, उसने वहां के घेटो चरित्र को चटका दिया था जिससे पहली बार मुस्लिम समाज के मानस(साइकि) को तोड़ दिया था। इसका असर पुरे भारत के मुस्लिम समाज पर पड़ा  क्योंकि स्वतंत्रता के बाद पहली बार उनकी मनमानी पर लगाम लगी थी, जिसे कांग्रेस के बढ़ावे में उन्होंने अपना अधिकार मान लिया था।

गुजरात में नरेंद्र मोदी के आने के एक वर्ष में जो कुछ हुआ था वह भारत की मौजूदा राजिनैतिक वातावरण के विरुद्ध था। जिस राजिनैतिक व्यवस्था और दलाल संस्कृति में नेता, नौकरशाह और मीडिया जीने के अभ्यस्त थे और उसमे फलफूल रहे थे, उसमे किसी को भी नरेंद्र मोदी द्वारा शासन चलाने का तरीका स्वीकार्य नही था।

इन सबको एहसास था की ऐसे आदमी का राजीनीति में लम्बे समय तक रहना इन सभी के लिए धातक है। वे लोग इस बात से भी मानसिक अवसाद में थे की नरेंद्र मोदी की शख्सियत के राजिनीतिज्ञ को वह नही जानते है और यही इनकी हीनता बन गयी जो बाद में घृणा के रूप में आज हम सबको दिखती है।

मैं मानता हूँ मोदी को प्रधानमन्त्री बनाने में आपके योगदान देने के अपने कारण होंगे लेकिन सिर्फ गोधरा, गुजरात 2002 को कारण मत बनाइये।

"भविष्य उज्जवल है लेकिन सारी अभिलाषाएं, आपके हिसाब से, आपकी प्राथिमकता के आधार पर पूरी होंगी यह उम्मीद मोदी जी से रखना छोड़ दीजिये"।

:- Raj Vasani. (મોરી ચા.) 😊

Sunday, 17 April 2016

मेरी अधूरी मोहब्बतें

जो प्रेम में होते हैं, किसी के नहीं होते..अपने भी नहीं.

मौसमों के संक्रमण के दिन थे. सर्दियां घिसट रही थीं...सूरज धरती को गर्म करने लगा था. हर सांझ सर्दियों को हवा लगा करती थी और सुबह उसका दम निकल जाया करता था. किसी साल ऐसे ही संक्रमण के मौसम में हमदोनों अपनी पसंदीदा जगह बीगबाईट में बैठे हुए थे.

बीगबाईट. रेसकोर्स रिंगरोड बना फूडकोर्ट. इसने नमालूम कितने प्रेम को पनपते, जवां होते और सिसक कर दम तोड़ते देखा है. कितने जोड़े यहाँ हाथें थामे आया किये हैं. एक ही कप में आइस-टी पीते कितने जोड़ों को इसने घंटों बैठे देखा है. इसकी टेबलों पर खूब गर्म आँसू गिरे हैं. यह बेइंतहा प्रेम, घुटन, टूटन का गवाह रहा है. हम भी इसके गवाह रहे और यह हमारा बयान बनकर रह गया...

ऐसी ही किसी सांझ हम दोनों वहाँ पहुंचे. आदतन आइस-टी मंगाकर मेन्यू पलटना शुरू कर दिये. टेबल से लेकर दीवारें और आर्डर लेने के लिए कागज़-कलम लिए बैरा तक जानता था कि आज भी कुछ नया नहीं होना है. परंपरागत तरीके से दोनों मेन्यू इस तरह डिस्कस कर रहे थे जैसे बीच अदालत किसी गंभीर किताब से कुछ भारी खोजते वकील. कप से दोनों घूंट दर घूंट लिए जाते थे...मेन्यू से कुछ चुनकर फिर कैंसिल किये जाते थे...खाली होते हर कप के बाद एक और नया कप आते जा रहा था.

‘अच्छा सुनो, पहले केक मंगा लेते हैं. जबतक तैयार होगा तबतक कुछ खाने का भी देख लेंगे.’...अचानक से किसी निष्कर्ष पर पहुंचकर वह बोली थी.

‘ठीक है. एक ब्लैक फारेस्ट पैक कर दो. सिर्फ ‘पगली’ लिखना उसपर. कैंडल 23 का रख देना. और देर मत लगाना.’

यह आर्डर देकर वापस खाने की खोज शुरू.
‘आज सब रहने देते हैं. कुछ भी समझ नहीं आ रहा. तुम न पिज़्ज़ा मंगा लो. सबसे बड़ा वाला मंगाना. उसके बाद हम  इस्कॉन चलेंगे. केक घर पर काटेंगे.’

उसके लहजे से यह साफ़ था कि अंतिम निर्णय आ चुका है. संशोधन की रत्ती भर गुंजाईश नहीं अब. फिर भी कोशिश के नाम पर हम तल्खी से बोले, ‘’इतना घूमेंगे तो केक का कबाड़ हो जायगा. पहले केक निपटा लो, फिर जहां कहोगी वहीँ चल लेंगे.’’

उसकी ऑंखें, जिनमें अभी बच्चे सी चमक थी, अब झरना हुई जाती थी. विश्वभर की तमाम प्रेम-कहानियों में ये झरने बहुत घातक हथियार हुआ करते हैं. विश्व के महान योद्धाओं ने यदि किसी प्रेयसी से आँसू के गोले का इस्तेमाल सीख लिया होता, लाखों-करोड़ों जिंदगियां बच गयी होतीं. फतह तो खैर खुद ब्रह्मा भी आकर नहीं टाल पाते. हम तत्काल प्रभाव से नरम हो चुके थे. विकल्प सोच रहे थे. उसकी आँखों में फिरसे बचपन लौट आया था.

वहां के प्रबंधक से बात करने के बाद मालूम हुआ कि कुछ अतिरिक्त भुगतान करने पर होम डिलीवरी संभव है. उसे पता लिखवाकर और सारी बातें समझकर लौटे तबतक टेबल पर डोमिनोज का पिज़्ज़ा आ चुका था. दो-दो स्लाइस के बाद किसी का मन खाने का नहीं था. काफी सारा हिस्सा अनछुआ पड़ा था. कुछ भी खाने की चीज फेंकना उसके आदर्शों के खिलाफ था तो बचे पिज़्ज़ा को पैक करा हम किसी भूखे की खोजपर निकल पड़े.

मंदिरों में आपको भगवान मिलें न मिलें, बाहर भूखे जरूर मिल जायेंगे. इसी तथ्य पर यकीन कर हम मंदिर की तरफ बढ़ चले. यही कोई चार-पांच सौ मीटर चले होंगे, फुटपाथ पर एक मरियल सा अधेड़ पड़ा मिल गया. हमदोनों हिचक भी रहे थे कि कहीं वह कुछ गलत न समझ ले. जूठा मान उसके आत्म-सम्मान को ठेस न लगे. हम उससे बात किये. वह निश्चित ही बहुत भूखा था और खूब उम्मीद से पिज़्ज़ा के डब्बे को देख रहा था. खैर, तुरंत ही उसने सारे बचे स्लाइस निपटा डाले. ऐसा लग रहा था जैसे उसकी भूख अभी बाकी ही हो. पूछने पर उसने कोल्डड्रिंक की इच्छा जाहिर की. खाने से उसका चेहरा कुछ ठीक हुआ था. साफ़ जाहिर हो रहा था कि यह शराब के कारण अधेड़ लग रहा है. अंदाज से कहें तो वह 26-27 साल का ही रहा होगा. हमदोनों को उससे बात करना अच्छा लग रहा था.

इस तरह की स्थिति में सामान्यतः लोगों में समाज-सुधारक की आत्मा घुस जाती है. हम दोनों समाज-सुधारक बन चुके थे..उपदेश दिए जा रहे थे. यदि नोबल वालों ने सुन लिया होता तो हम दोनों नोबल शांति पुरस्कार के प्रबल दावेदार मान लिए जाते.

‘देखो अपनी हालत. खुद पर कम से कम तरस खाओ. क्यों लेते हो शराब ?’ उपदेशक बनकर हम सवाल झाड़ चुके थे.

‘जाने दो साहब आप. मुझे भूख लगी थी, आपने खाना खिला दिया. खुदा आपपर इनायत करे. अब जाओ आप.’ बहुत बुरे लहजे में उसने यह कहा था.

अजीब लगा पर अब भी बात करना चाह रहे थे हम. थोड़ा और कुरेदने पर एकदम फट पड़ा और इथायल अल्कोहल से लेकर सिगरेट तक की रामकहानी कह गया. हर एक बुराई बता गया. उस दिन हमें पहली बार मालूम हुआ था कि सिगरेट के जलते सिरे का तापमान 700 डिग्री को भी पार कर जाता है. सिहर भी गए थे कि इस तापमान का धुंवा अन्दर कितना खाता होगा हमें भी.

उसने कोई शायरी बुदबुदाया था. ख्याल में खलल पड़ा. वह बेतरह रो रहा था. शब्द टुकड़ों में हमसे जब्त हुआ था. चीथड़ों से खोजकर उसने कई गंदले पन्ने निकाले थे. पन्ने पर दर्ज था..

इश्क़ जब तक न कर चुके रुसवा, आदमी काम का नहीं होता...

उसका रोना जारी था. लोग जुटने लगे थे. तरह तरह की टिप्पणियाँ. उड़ती बातों से मालूम हुआ कि वह इधर ही कुछ महीने से यहाँ नजर आ रहा है. जब आया था तब साफ़-सुथरा और शरीफ दिखता था. रातों में खूब रोया करता था. एक पालीथीन की थैली लेकर आया था वह जिसे किसी ने इससे छीन लिया था. उसके बाद इसकी हालत और बिगड़ते गयी. कहते हैं कि उस थैली में इसकी मरहूम माशूका की तस्वीर थी...

हम सन्न थे. वह बेतरह रो रही थी. चिथड़ा घिसटकर पैरों पर आ दया था और कुछ पैसे मांग रहा था...शराब पीने के लिए. लोग मना कर रहे थे. हमने अनमने में सौ का नोट उसे थमाया और बढ़ गए...बड़ी देर तक उसकी आवाज़ आती रही...’’जो प्रेम में होते हैं, किसी के नहीं होते...अपने भी नहीं.”

हमारा प्लान अब बदल चुका था. वहीँ बीगबाईट के पार्किंग में फुटपाथ पर बने चाय के नुक्कड़ पर हम बैठे हुए थे. इस नुक्कड़ पर हमने सिर्फ गंभीर बातें की थी. जब मन भारी होता था या कुछ बोझिल बातें होती थी, हम इसी नुक्कड़ पर पहुँच जाते थे. बीना शक्कर वाली चाय के साथ मौसम बन चुका था. दोनों चुप थे. अचानक से वह बोली, “कितने खुशनसीब होते हैं वे लोग, जिन्हें मरने के बाद भी कोई ऐसे याद करता है. यदि मैं मर गयी तो क्या तुम मुझे याद रखोगे?”

हमने डांट कर चुप करा दिया था...कुछ देर बाद वह 20 साल की हो गयी थी. कुछ महीने बाद वह साल ही नामुराद हो गया था...

इश्क़ जब तक न कर चुके रुसवा,
आदमी काम का नहीं होता......

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लोग पढ़ते हैं, मुझसे क़िताब बोलती है,
मैं बात करता हूँ, तो शराब बोलती है,
जमाना मानता है वाइज़ मुझे ऐतबार से,
इक पगली है, जो मुझे खराब बोलती है.....!!!

(हमारा नहीं है पर हमारे लिये है. एक बड़े भाई ने खास हमें समर्पित करके करीब दो साल पहले लिखा था. अब तो हर रंग और गहरा गया है. तारीख़ बदलने से पहले एक और बार बहुत सारी शुभकामनाएँ मेरीजां.)

मेरी अधूरी मोहब्बतें.....!!!
(जनवरी 2015)

- Raj Vasani. 😊