Sunday, 21 May 2017

मेरी अधूरी मोहब्बतें....

(11)

...मुहब्बत और बगावत में शिद्दत बहुत जरूरी होता है।

फ़र्क बस इतना-सा कि शिद्दत से किया मोहब्बत अधूरा रहता है और वही शिद्दत बगावत को पूरा बना देती है। बगावत सीखने की हमें जरूरत न पङी...हमारे समझदारी का इतिहास बगावती तेवर से ही शुरू होता है और मोहब्बत तो खैर जमानों से सीखने की चीज़ ही न रही।

लियो ताॅल्सताॅय की कालजयी "वार&पीस" को पढ़ने और समझ लेने की कई असफल कोशिशों के बाद हम एक और कोशिश करने जा रहे थे...हमारे पढ़ाई के गहरे साथी रहे शराब को अब बाबा का परसाद(यानी की गांजा) भी कंपनी देने लगा था। वो दिल्ली के कुख्यात पावर कट की रात थी...हमारे आँखों में बदली की तरह छाये लाल और गुलाबी डोरें मदमस्ती के गर्म और सर्द झोंकों के टकराव की छटा बिखेर रही थी। समझदार प्राणी समंदर के रूख से परिचित होंगे ही...हमारे अंदर का समंदर कब भाटा बना और बिस्तर पर मौनसुनी उल्टियाँ कब बरस पङी...याद नहीं...होना भी नहीं चाहिए...खूबसूरत लम्हे अक्सरहां याद्दाश्त के साथ धोखाधड़ी करते आये हैं। हमारी सुबह हुवी पगली के फोन से...रात बेहोशी में हमने जो ताबङतोङ कई फोन कर डाला था उसे। खैर अब हमारी बेहूदगी को होश और समझ ने परे हटा दिया था सो हमने पगली को मिलने की अर्जी दे डाला।

नेहरू प्लेस मेट्रो स्टेशन...सत्यम सिनेमा...हमेशा की तरह इंतज़ार करती पगली और देर से पहुँचते हम और हमारी आवारगी। पगली को फिल्म देखना था...हमारे पाॅकेट में इतने पैसे नहीं कि दो टिकट खरीदा जा सके...बोनस में ये कि हमारे मुँहबोली बहन का जन्मदिन सो समय भी न था। ये सब जान लेने के बाद पगली अकेले ही फिल्म देखने को तैयार...हमने गुस्से और दर्द को दबाकर टिकट कराया और वहाँ से रूख्सत हुवा। खान मार्केट मैक्डोनाल्ड्स आऊटलेट में भी उधार कर लेने का कीर्तिमान हमें और परेशान कर रहा था...अब मदिरा के मंदिर पर भी उधार करने की बारी थी...चौङे में ये भी किया गया। खुमारी छाते ही पगली से बात किया गया...और उसदिन पगली बिलकुल बरस पङी...साफ़ लहजे में उसने कह दिया कि राज तुम बङे सनकी और इंकलाबी हो...तुम्हारे साथ अब और नहीं रहा जा सकता। फोन कटते ही हम फिर से डायरी को शरणागत थे...

"वो बोली,
तुम जाओ,
मैं रूकती हूँ,
तुम्हारे साथ चलना,
आसां नहीं,
राज...तुम आशिक़ भी बङे इंकलाबी हो।
सच कहता हूँ,
बङे गहरे ताल्लुकात हैं,
इश्क और इंकलाब के,
दोनों ही राहें,
तन्हाई से लबालब,
और करना होता है बेइंतहा बलिदान भी।"

शिद्दत वाली मोहब्बतें अक्सरहां अधूरी रहा करती है। हम कृष्ण नहीं हो सकते...हम मजनूं नहीं होना चाहते...हम बस गुमनाम पर पूरी होनेवाली मोहब्बतों का किरदार होना चाहते हैं, पर वक्त पर किसका जोर चल सका है? नेताजी के नाम को शराब से सींचने का कूफ़्र हमारे हिस्से पङने का आदेश बेरहम वक्त ने दे ही दिया...और उसने इस राज और उसकी पगली को यादगार मोहब्बतिया किरदार भी बना देना चाहा।

आखि़रकार कौन टाल सका है "उसकी" मर्जी?

(जारी...)

:- Raj Vasani.... 😉☺