Thursday, 16 March 2017

मेरी अधूरी मोहब्बतें....

(10)

सारे मर्द बिस्तर पर दशरथ क्यों हो जाते हैं?
मतलब?

मतलब यही कि सारे मर्द बिस्तर पर दशरथ क्यों हो जाते हैं?
देखो, पहेलियाँ हम नहीं समझ पाते हैं। साफ-साफ कहो।

समझ नहीं पाते या समझना नहीं चाहते राज बाबू?
दोनों ही। खैर, अभी समझाओ।

मतलब यही कि सारे मर्द बिस्तर पर वो तमाम वादे कर देते हैं, जो सच में कर पाना उनकी औकात के बाहर होती है।
क्या इसे अपनी आलोचना समझें?

तुम्हें जो समझना है समझो। मैं अपनी बात कह चुकी हूँ।
कौन सा वादा पूरा नहीं किये हैं, हमें भी तो मालूम हो?

तुम्हारे तकिये से लेकर दरवाजे तक और बाहर छत पर दरवाजे से लेकर बाथरूम तक, दीवार से सटी बोतलों की जो तीन कतारें हैं, वो तुम्हारे धोखे के दस्तावेज हैं राज बाबू।
ओह्ह प्लीज...अब फिर से वही रामकहानी मत शुरू करो।

प्लीज, राम को तो बदनाम मत करो। यह राज़कहानी है। तुम्हारे अन्दर इतनी हिम्मत भी नहीं है कि अपनी कहानी सुन सको।
क्या चाहती हो तुम?

जाने भी दो। तुम्हारे वश से बाहर की बात है और तुमको झूठा होते देखना मुझे पसंद नहीं।
हमेशा झगड़ने के बहाने खोजते रहती हो। हम बिना लड़े नहीं रह सकते?

रह सकते हैं...क्यों नहीं रह सकते!
फिर?

फिर यही कि छोड़ दो इसे।
यह आदत हो गयी है।

बुरी आदत बोलो। इस हराम चीज़ को इतनी तवज्जो क्यों दे रहे हो?
आदतें हमेशा बुरी होती हैं मेरीजां। अच्छा सिर्फ वही जो आदत नहीं है।

फिर तो मैं भी बुरी हूँ ना?
नहीं बाबू। तुम रूह की ज़रुरत हो, आदत नहीं।

ज्यादा बनो मत। बात घुमा दिए।

कुछ देर कमरे का वातावरण एकदम शांत था। इतना कि छिपकलियों की चाल भी सुनी जा सके। बहुत देर तक चुप नहीं रह पाना पगली की आदत थी। हालाँकि हमें खामोश ‘वो’ बहुत भाती थी, लेकिन वही बुरी आदत...वक़्त-वक़्त पर सभी को निराश करती ही है।

हाँ, तो मैं क्या कह रही थी?
कुछ भी तो नहीं।

हैं? बनोगे?
ठीक है..बोलो।

राज, मेरी बात सीरियसली सुनना। लोग प्यार में क्या-क्या नहीं छोड़ देते। कितनी कहानियाँ पढ़ी हूँ। लोगों ने राजपाट तक छोड़ दिया। कईयों ने ज़िन्दगी छोड़ दी। तुम मेरे लिए शराब नहीं छोड़ सकते?
सुनो बाबू, वैसे तो अभी बहस करने का मन बिलकुल नहीं था, लेकिन तुम मानोगी नहीं तो बोल रहा हूँ। अब हम जो बोलें उसे भी ध्यान से सुनना। कई बार समझाए हैं न कि मोहब्बत पढ़कर नहीं की जाती। हम तो यह भी पढ़े हैं कि लोग प्यार में माशूक़ को तमाम बुराईयों के बावज़ूद अपना लेते हैं।

तुमसे तो बहस करना ही बेकार है। मैं बहस में नहीं जीत सकती तुमसे लेकिन इतना याद रखना कि एकदिन तुम्हें छोड़कर बहुत दूर चली जाऊँगी। मेरी आवाज़ भी नहीं सुन पाओगे।

जब बातें बढ़कर यहाँ तक जा पहुंचे, तब सबकुछ एकदम भारी-भारी हो जाता है। हवाएँ इतनी भारी कि फेंफड़े साँस लेने में फड़फड़ाने लगें। खुद का जिस्म इतना भारी कि कमर उसे टिकाने से इंकार करने लगे। जिस्म का पानी इतना भारी कि पलकें उसे थामने से बगावत करने लगें।

उसकी आखिरी बात को सोचकर ऐसा ही कुछ-कुछ होने लगा था। हम औंधा लेटकर तकिये को नमकीन कर रहे थे...कमरे का मौसम उदास हो चला था...वक़्त से थक कर सूरज भी निढाल हो चला था...घिरते अँधेरे से यूँ मालूम होता था कि खिड़की की देहरी पर क़यामत दस्तक दिये जाती है....

(पुराना, जो की आदतानुसार अटक गया था मैं , आज फिर से... संपादन की जरूरत बहुत कम पड़ी। यह उन चुनिंदा लिखावटों में से है जो हम लिखे और हम ही खुद बार-बार पसंद किये, बार-बार याद किये। वैसे, अब यह और भी नायाब हो चला है, धरोहर सरीखा। आगे जारी...)

:- Raj Vasani.... 😉😃