Wednesday, 30 March 2016

"गद्दारी हमारे खून में है"

(4)

एचएसआरऐ(HSRA) के कमांडर चन्द्रशेखर आज़ाद, जहां भारत की स्वतंत्रता और इसको हासिल करने के लिए बड़े पैशनेट थे वहीं वो व्यवहारिक भी थे। उन्हें इसका पूरा एहसास था की किसी भी सशस्त्र भूमिगत आंदोलन में साथियों का पुलिस द्वारा पकड़े जाने का हमेशा ही अंदेशा रहेगा और पुलिस की प्रतारणा के आगे कमजोर साथी टिक नही पाएंगे। इसलिए उन्होंने आदेश दिया था की जब कोई क्रन्तिकारी, कार्यवाही के दैरान पकड़ा जाये, तो वह अपने हिस्से की भूमिका स्वीकार कर ले लेकिन किसी भी हालत में अन्य साथियो और HSRA की गतिविधियों के बारे में मत बताये। इन आदेशो की अवेहलना करने वाले को मृत्यु दण्ड देने की चेतावनी भी दे रक्खी थी।

जब चन्द्रशेखर आज़ाद भूमिगत हुए थे तब उन्होंने सभी साथियों को छुप जाने को कहा था और कुछ विश्वनीय लोगो को बम और हथियारों को छिपाने का काम दे दिया था। इसी एक प्रयास में भुसावल रेलवे स्टेशन पर दो क्रन्तिकारी भगवानदास माहौर और सदाशिव राव मलकापुरा पकड़ लिए गए थे। ये सदाशिव राव वही है जिन्होंने बाद में चन्द्रशेखर आज़ाद की माँ को रक्खा था। इन दोनों के बारे में पुलिस को, जय गोपाल और एक दूसरे गवाह फणिचन्द्र ने, HSRA के सदस्य के रूप में बता दिया था।

भगवानदास और सदाशिव दोनों पर जलगांव में मुकदमा चलाया गया, जो अब 'भुसावल बम केस' के नाम से जाना जाता है। जब सदाशिव को पता चला की 21 फरवरी 1930 को उनके विरुद्ध गवाही देने लौहोर पुलिस के साथ, मुखबिर जयगोपाल और फणीन्द्र घोष आने वाले है तो इन दोनों को अदालत में ही मारने का मन बनाया था। उन्होंने, उनका निः शुल्क मुकदमा लड़ रहे, झाँसी के प्रसिद्ध वकील श्री र. वि. धुलेकर, के माध्यम से, चन्द्रशेखर आजाद के पास यह संदेश भिजवाया। तब आजाद ने अपने एक फरार क्रांतिकारी साथी भगवतीचरण वोहरा को वकील के वेश में उनके पास भेजकर कहलवाया कि 'गोली चलाने का काम भगवानदास करेंगे क्योंकि एक ही मामले में दो आदमी फाँसी पाएँ, यह ठीक नहीं रहेगा।'

योजनानुसार 20 फरवरी की शाम को, सदाशिवराव के बड़े भाई शंकर राव मलकापुर, चावल के बड़े कटोरे के नीचे एक भरी हुई पिस्तोल रखकर, जेल में उन लोगों को दे आये। अगले दिन अदालत में भोजनावकाश के समय भगवानदास माहौर ने जयगोपाल और फणीन्द्र पर हमला कर दिया, जिसमें जयगोपाल को गोली लगी और वह घायल हो कर गिर गया लेकिन वो मरा नहीं था। भगवानदास उस पर और गोली उस दागते लेकिन उनकी पिस्तौल जाम हो गई थी।

इस घटना के बाद जय गोपाल सहित सभी गद्दारो की सुरक्षा, ब्रिटिश पुलिस ने बढ़ा दी, जिससे और हमले करने में क्रन्तिकारी सफल नही हो पाये थे।

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दिलवाने में मदद करने के ऐवज मे ब्रिटश सरकार ने 1931 में गद्दार, जय गोपाल को  20,000 रुपये इनाम में दिए थे। उसके बाद जय गोपाल कहा इतिहास में दफन हो गया, मुझे नही पता चला है।

मैंने बहुत तलाश की लेकिन जय गोपाल के आगे के जीवन के बारे में कुछ भी लिखा नही मिला है। यदि किसी के पास कोई सुचना हो तो मुझे अवश्य बताइयेगा।

(क्रमशः) :-

Monday, 28 March 2016

"गद्दारी हमारे खून में है"

(3)

क्रमशः से आगे

भगत सिंह और बुटकेश्वर दत्त द्वारा दिल्ली की असेम्बली में बम फोड़ने का नतीजा यह हुआ था की ब्रिटिश सरकार घबरा गयी थी और उनकी पुलिस ने देश भर में "एचएसआरऐ" के ठिकानो पर छापे मारने शुरू कर दिए थे। ऐसे ही एक छापे में, लौहोर की बम फैक्ट्री पकड़ी गयी थी और सुखदेव थापर , किशोरी लाल और जय गोपाल गिरफ्तार कर लिए गए थे, लेकिन एक सदस्य, यशपाल वहां से बच निकलने में सफल हो गए थे। यशपाल, जो बाद में हिंदी के एक बड़े लेखक बने थे, वे एक वामपंथी थे और लौहोर में,  कालेज के दिनों से ही भगत सिंह और सुखदेव थापर से मिले थे। वे केंद्रीय भूमिका में न होकर सहयोगी की भूमिका में ही थे। इस के बाद ही,  "एचएसआरऐ" की दूसरी बम फैक्ट्री, सहारनपुर में पकड़ गयी थी। यह संदेह हमेशा ही रहा है की सहारनपुर स्थित बम फैक्ट्री की मुखबरी लौहोर बम फैक्ट्री पकड़े जाने के बाद हुयी थी। इन दो फैक्टरियों के पकड़े जाने से "एचएसआरऐ" को बड़ा धक्का लगा था और यही से कमजोर क्रांतिकारियों में से गद्दार निकलने शुरू हुए थे।

सबसे पहले जो गद्दार टुटा था वो 'जय गोपाल' था। जय गोपाल का टूटना बहुत महत्वपूर्ण था क्यूंकि सैंडर्स की हत्या के दल में वो भी शामिल था। लौहोर में उस दिन, एसएसपी स्कॉट को मारने की पूरी योजना, चंद्रशेखर आज़ाद की थी। उस योजना के अनुसार, जय गोपाल को सकॉट को पहचानना था। पहचान के बाद, भगत सिंह को पहली गोली मारनी थी और उनकी गोली चलने के बाद, राजगुरु को गोली चलानी थी। चंद्रशेखर आज़ाद को इन दोनों को कवर करना था ताकि वो लोग गोली मार कर भाग जाए।

जय गोपाल ने सॉन्डर्स को सकॉट समझ कर, भगत सिंह को इशारा किया था लेकिन भगत सिंह ने जब देखा तो वह उसे सकॉट के रूप में पहचान नही पाये थे। इसी वजह से भगत सिंह गोली चलाने में हिचकिचा गये थे। इसलिए देरी होता देख कर राजगुरु ने सॉन्डर्स को पहले गोली मारी थी। राजगुरु के गोली चलने के बाद ही भगत सिंह ने सॉन्डर्स को गोली मारी थी। जब वो भाग रहे थे तब हेड कांस्टेबल चन्ना सिंह ने उनका पीछा किया और तब चंद्रशेखर आज़ाद ने, बाकी साथियों को भागने का मौका देते हुए, चन्ना सिंह की गोली मार कर हत्या कर दी थी।

जय गोपाल से जेल में जब उसकी पत्नी और माँ मिलने आई, तो उनके द्वारा पुलिस ने उसपर दबाव बनाया और प्रलोभन दिया था। आखिर में जय गोपाल, अपनी पत्नी और माँ के कहने पर मान गया और वह गद्दारी करने को तैयार हो गया था। जय गोपाल, अपनी पत्नी और माँ का रोना बर्दाश्त नही कर पाया था और उसने पुलिस को, "एचएसआरऐ" के सारे भेद खोल दिए थे।

उसकी निशान देही पर ही भगत सिंह और राजगुरु की, सॉन्डर्स की हत्या करने वाले अभियुक्त के रूप में पहचान हुयी थी। यहां यह गौर करने वाली बात है की इस काण्ड में, सुखदेव शामिल नही थे लेकिन फिर भी जय गोपाल ने योजना बनाने वाले के रूप में, सुखदेव का नाम लिया था। उस वक्त, पंजाब पुलिस के लिए, सुखदेव सबसे बड़ा नाम था क्यूंकि वो ही "एचएसआरऐ" के सबसे प्रभावशाली संगठक थे। इसलिए अदालत में यह केस, भगत सिंह के नाम पर नही "द कोर्ट वर्सेज सुखदेव एवं अन्य" के नाम से चला था।   

“In the court of The Lahore Conspiracy Case Tribunal, Lahore, constituted under Ordinance no III of 1930: The Crown – Complainant versus Sukhdev and others”.       

(क्रमशः) :-

Friday, 25 March 2016

"गद्दारी हमारे खून में है"

(2)

आज कल भारत में गद्दारी की फिजा चल रही है। यह देख कर लोग अचंभित है की इतने सारे गद्दार हमारे बीच में थे और हम लोगो को इसका एहसास ही नही हुआ। यह यकीनन बेहद अफसोसनाक और चिंतनीय है। मुझे में, गद्दारो के होने से इतना आक्रोश नही है जितना इस बात पर है की लोग इसको किसी वाद के प्रति आस्था या अभिवयक्ति की आज़ादी के नाम पर, निर्लज़्ज़ता और दम्भ से, भारतीय समाज से उनके गद्दार होने को प्रतिष्ठित कराना चाहते है। 

इसी पृष्टभूमि में मैंने बीते दिनो ककाोरी काण्ड में उन गद्दारो का जिक्र किया था जिनकी गद्दारी से रामप्रसाद बिस्मिल सहित 4  राष्ट्रभक्त क्रांतिकारियों को 1927 में फांसी की सज़ा मिली थी। इसके 4 साल के भीतर ही, 1931 में एक बार फिर गद्दारो की वजह से ही महान क्रन्तिकारी भगत सिंह, सद्गुरु, और राजगुरु को फांसी दीगयी थी।  

चंद्रशेखर आज़ाद की इच्छा के विरुद्ध, भगत सिंह ने बुटकेश्वर दत्त के साथ, "एचएसआरऐ" (HSRA) की आवाज़ देश भर में फ़ैलाने के लिए, "दिल्ली के केंद्रीय लेजिस्लेटिव असेंबली' में धमाके वाले बम फोड़ कर गिरफ्तारी दी थी। तब भगत सिंह को यह अंदाज़ा नही था की वो लाहोर में हुए एएसपी सेंडर्स की हत्या का भी मुक़दमा उन पर कायम होगा और उन्हें फांसी होगी।

भगत सिंह के बम फोड़ने के बाद से ही पुलिस "एचएसआरऐ" के सदस्यों के पीछे पड़ गयी थी। चन्द्र शेखर आज़ाद तथा अन्य "एचएसआरऐ" सदस्य गिरफ्तारी से बचने के लिए अंडरग्राउंड हो गए थे और पुलिस उनके ठिकानो पर लगातार छापे मार रही थी। इसी क्रम में लौहोर में स्थित बम फैक्ट्री पकड़ी गयी थी और उसमे सुखदेव थापर , किशोरी लाल और जय गोपाल को गिरफ्तार कर लिया गया था। उसके बाद, सहारनपुर स्थित बम फैक्ट्री भी पकड़ी गयी और इन दोनों फैक्ट्री के पकड़े जाने के बाद ही भगत सिंह, सुखदेव थापर और राजगुरु पर सेंडर्स की हत्या का मुक़दमा कायम हुआ था। दरअसल लौहोर बम फैक्ट्री में गिरफ्तारी के बाद से ही गद्दार सामने आये थे और उनकी गवाही ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी पर लटकवाया था।

वैसे तो कई लोगो ने गवाही दी थी लेकिन जिन गवाहों के बयान ने इन तीनो क्रांतिकारियों को फांसी की सजा दिलवाई थी वह "एचएसआरऐ" के सदस्य थे और उनके साथी थे। यहां इन गद्दारो के बारे में बात करने से पहले एक नाम की चर्चा जरूर करूंगा जिनका नाम अक्सर लोग लेते है और मानते है की उनकी गवाही पर भगत सिंह सहित तीनो को फांसी हुयी थी। 

भगत सिंह की फांसी के पीछे प्रसिद्ध लेखक खुशवंत सिंह के पिता, 'सर शोभा सिंह' का नाम बराबर लिया जाता है, जो की गलत है। यहां एक बात समझ लीजियेगा की दिल्ली में बम फोड़ना एक अलग केस था और लौहोर में सैंडर्स की हत्या बिलकुल अलग केस था। सर शोभा सिंह, जो की ब्रिटिश राज्य के कृपा पात्र थे और बड़े ठेकेदार थे, वे उस दिन, जिस दिन बम फोड़ा गया था असेंबली में मौजूद थे। उन्होंने ही भगत सिंह और बुटकेश्वर दत्त की शिनाख्त की थी और उन्होंने जो पूरा घटना क्रम बताया था, उसी के आधार पर भगत सिंह और बुटकेश्वर दत्त को 12 जून 1929 को, असेंबली में बम फोड़ने के इल्जाम में, आजीवन कारावास हुयी थी। हाँ, यहाँ यह बताना जरुरी है की अदालत ने अपने फैसला देने में, गवाहों की गवाही में दिए गए घटनाक्रम पर संदेह व्यक्त किया था लेकिन क्यूंकि खुद भगत सिंह और बुटकेश्वर दत्त ने अपनी गिरफतारी दी थी इसलिए उन्हें मुलजिम माना गया था। 

भगत सिंह, सुखदेव थापर और राजगुरु पर सैंडर्स की हत्या का मुकदमा, असेंबली बम कांड में सजा दिए जाने के बाद ही चालू हुआ था इसलिए उनकी फांसी के जिम्मेदार गद्दारो की कहानी उसके बाद ही शुरू होती है। इन तीन क्रांतिकारियों को फांसी दिलाने वाला केस "लौहोर षड्यंत्र केस" के नाम से जाना जाता है।

(क्रमशः) :-

Sunday, 20 March 2016

"गद्दारी हमारे खून में है"

(1)

किसी भी राष्ट्र की अस्मिता और उसके अस्तित्व की रक्षा के लिए उसका सबसे प्रचण्ड अस्त्र उसके शहीदों और उनके साथ गद्दारी करने वालो की याद होती है

भारत उन दुर्भाग्यशाली राष्ट्रों में से रहा है जहां राष्ट्रभक्त क्रांतिकारियों को तो भुलाया ही गया है वहीं उनके साथ गद्दारी करने वालो को भी भुला दिया गया है। वे या तो इतिहास की स्मृति से छांट दिए गए है या फिर उन्हें स्वतंत्रता के बाद फिर से प्रतिष्ठित होने का अवसर दिया गया है।

इसमें जितना दोष कांग्रेस और उनके वामपंथी इतिहासकारो का है, उतना ही दोष भारतीय समाज का भी है। ऐसा संभव ही नही था की उस काल में गद्दारो को भारतीय समाज जानता नही था लेकिन कालांतर में स्वार्थी और क्षमा की संस्कृति से लदे समाज ने, गद्दारो को भुला कर, आगे आने वाली पीढ़ी के साथ बड़ा अन्याय किया है। भारतीय क्रांतिकारियों के इतिहास में  'काकोरी काण्ड', 'लाहोर काण्ड' और 'चंद्रशेखर आज़ाद का हत्याकांड', 3 महत्वपूर्ण घटनाये हुयी है।जिसमे ककोरी और लाहोर कांड पर तो मुकदमे चले थे और गद्दारो की ही गवाही पर क्रांतिकारियों को फांसी तक की सजा हुयी थी। इन गद्दारो के नाम सार्वजनिक थे, लेकिन इसके बाद भी आज शायद ही कोई हो जो उन लोगो के बारे में जानता होगा या उनका भविष्य में क्या हुआ, इसके बारे में कोई उत्सुकता ही बची है। चंद्रशेखर आज़ाद की हत्या ने क्यूंकि कभी अदालत नही देखी इसलिए उसके गद्दार हमेशा बचते रहे है। इसके बाद भी 1931 के बाद से ही कुछ लोगो पर हमेशा शक रहा है लेकिन 70 के दशक बाद सब मौन हो गए है।

चंद्रशेखर आज़ाद की हत्या के गद्दारो पर फिर कभी लिखूंगा लेकिन आज काकोरी कांड में क्रांतिकारियों को फांसी दिलवाने वाले भारतीयों का परिचय, आप लोगो से जरूर कराऊंगा।

9 अगस्त 1925 को लखनऊ के पास काकोरी रेलवे स्टेशन के पास, राम प्रसाद 'बिस्मिल' के नेतृत्व वाली "हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन"(HRA) ने ब्रिटिश सरकार के खजाना लूटने के लिए, ट्रेन पर सशस्त्र डकैती डाली थी। इस काण्ड से तत्कालीन सरकार हिल गयी थी और पुरे देश से "हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन" के सदस्यों को इस डकैती के इल्जाम में गिरफ्तार कर लिया गया। कुल 40 लोगो को इस काण्ड में दोषी होने के संदेह में गिरफ्तार किया गया था। इस डैकैती में शामिल अशफाख खान और सचिन्द्र बक्शी उस वक्त पकड़ में नही आये और ट्रायल समाप्त होने के बाद ही वे गिरफ्तार हो पाये थे। उसमे शामिल चन्द्रशेखर 'आज़ाद' ही अकेले ऐसे थे जिन्हे अंत तक पुलिस गिरफ्तार नही कर पायी थी।

ब्रिटिश सरकार की ओर से लखनऊ के "पंडित जगत नारायण मुल्ला", जो की कश्मीरी पंडित थे, सरकारी वकील थे। पंडित मोतीलाल नेहरू ने उनसे इन क्रांतिकारियों के विरुद्ध मुक़दमा न लड़ के, उनके लिए मुकदमा लड़ने को कहा था लेकिन पंडित जगत नारायण मुल्ला की रामप्रसाद 'बिस्मिल' से पुरानी अनबन थी इसलिए उन्होंने उनके पक्ष में मुकदमा लड़ने के बजाये सरकारी वकील बनना पसंद किया था। दरअसल जब 1916 में 'बाल गंगाधर तिलक', जो कांग्रेस के गर्म दल के थे, का लखनऊ आगमन हुआ था तब कांग्रेस के नरम पंथी, जिसमे जगत नारायण मुल्ला प्रमुख थे, जिनका कांग्रेस में वर्वस्य था, नही चाहते थे की बाल गंगाधर तिलक का लखनऊ में सार्वजनिक अभिनंदन और स्वागत हो। लेकिन रामप्रसाद 'बिस्मिल' ने नरम पंथियों की बात मानने से इंकार कर दिया था और स्वयं उन्हें लेने रेलवे स्टेशन गए थे। तिलक का पुरे लखनऊ शहर में शानदार स्वागत और अभिनंदन हुआ था जिससे नरमपंथी कांग्रेसी काफी आहात हुए थे।

जब ब्रिटिश सरकार ने कोर्ट में इल्जाम दाखिल किया था तब 4 लोगो के नाम चार्जशीट हटा दिए गए थे। बनारस के 'दामोदर सेठ' को खराब बीमारी के आधार पर छोड़ दिया गया और बाकि तीन क्रन्तिकारी और भी छोड़े गए थे। वो थे,

"उरई के वीरभद्र तिवारी", 
"इलाहबाद के ज्योति शंकर दीक्षित" और 
"मथुरा के शिवचरण लाल".

इन तीनो पर ही उस वक्त यह संदेह था की ये ब्रिरिश सरकार की सहायता करने के आश्वासन पर बचा लिए गए थे।

इसके आलावा 2 क्रन्तिकारी सरकारी गवाह बन गए थे,

"शाजहंपुर के बनारसी लाल और इंदुभूषण मित्रा" और 
"रायबरेली के बनवारी लाल", जो कम सजा के आश्वासन पर सरकारी वकील की मदद करने को तैयार हो गये थे.

इन गद्दारो की मदद से 'रामप्रसाद बिस्मिल', 'ठाकुर रोशन सिंह', 'राजेन्द्र नाथ लहरी', 'अशफ़ाक़ुल्ला खान' को फांसी की सजा हुयी थी.

इसके साथ ही 'सचिंद्रनाथ सन्याल' और 'सचिंद्रनाथ बक्शी' को कालापानी, 'मन्मथ नाथ गुप्ता' को 14 साल, 'योगेश चन्द्र चटर्जी', 'मुकुन्दी लाल', 'गोविंद चरण कर', 'राज कुमार सिंह' और 'राम कृष्णा खत्री' को 10 साल, 'विष्णु चरण दुबलिश', 'सुरेश चरण भट्टाचार्य' को 7 साल, 'भूपेन नाथ सान्याल', 'प्रेम कृष्णा खन्ना' को 5 साल और 'केशब चक्रवर्ती' को 4 साल की कारावास हुयी थी.

आज चंद नामो को छोड़ कर न हमे क्रन्तिकारी याद है और न ही उनकी याद है जिन्होंने इनके साथ गद्दारी कर के भारत माँ के साथ गद्दारी की थी।

क्रन्तिकारीयों को भूल जाना अपराध है लेकिन गद्दारो को भूले तो आत्महत्या होगी।

(क्रमशः) :-...

Monday, 14 March 2016

'Meet John Doe'

'Meet John Doe'

आज से 5 साल पहले अंग्रेजी की एक मशहूर ब्लैक & वाइट फ़िल्म  'Meet John Doe' देखी थी। उसके निर्देशक फ्रैंक कैपरा थे और गैरी कूपर ने उसमे मुख्य भूमिका निभायी थीं।

फ़िल्म का कथानक तो कुछ और था लेकिन अपनी बात कहने के लिए आपकी मुलाकात 'जॉन डो' से कराता हूँ, जो वास्तविकता में जॉन विल्लोहबी नाम का आदमी है। वो एक बेरोजगार और फटेहाल आदमी है, जो एक अजनबी शहर में आया हुआ है। शहर का मौहोल राजनीती और सत्ता की आपा धापी से गर्म है। उसी शहर में एक प्रभावशाली अख़बार होता है जिसका मालिक 'नॉर्टन' है, जो प्रभावशाली भी है और राजीनीति में दखल भी रखता है। उसी अख़बार में एक महिला पत्रकार 'मिशेल' भी होती है, जो उस वक्त अपने खुद के अस्तित्व और जीविका की लड़ाई लड़ रही होती है।

मिशेल, अपनी नौकरी बचाने के लिए, एक काल्पनिक चरित्र 'जॉन डो' के नाम से, एक फ़र्ज़ी पत्र अख़बार में छाप देती है, जिसमे जॉन डो, समाज में व्याप्त कुरीतियों और भरष्टाचार के विरोध में, क्रिसमस के दिन आत्महत्या करने की घोषणा करता है।

जब वह पत्र अख़बार में छपता है तो शहर में सनसनी फ़ैल जाती है और लोग जॉन डो को जानने को आतुर हो जाते है। तब मिशेल उस फटेहाल बेरोजगार आदमी जॉन विल्लोहबी को 'जॉन डो' बना कर जनता के सामने पेश करती है। अख़बार मालिक नॉर्टन इसमें राजिनैतिक भविष्य देखता है और  मिशेल की तनखाह बढ़ा देता है। उसके ऐवज में वो जॉन डो की आवाज़ बन जाती है और जॉन डो के नाम से लेख और भाषण लिखने लगती है।

लेकिन शहर के प्रतिद्वन्दी अख़बार और कुछ सजग नागरिको को यह शक होता है की जॉन डो फ़र्ज़ी है।वो लोग पुरे मामले की जांच करने लगते है ताकि जॉन डो, मिशेल और नॉर्टन की असिलयत सबके सामने उजागर की जासके। इसी घटनाक्रम में नॉर्टन, जॉन डो को आगे करके  एक राजिनैतिक पार्टी बनाने की घोषणा कर देता है। जिस दिन इस पार्टी का उद्घाटन होना होता है उस दिन, जॉन डो को एहसास होता है की नॉर्टन अपने स्वार्थ के लिए उसे इस्तमाल कर रहा है तो वह निश्चय करता है की उद्घाटन समारोह में वो सबको जॉन डो, नॉर्टन और मिशेल की असिलयत बता देगा और फिर शहर से चला जायेगा। यह बात जब नॉर्टन को पता चलती है तो नॉर्टन पहले ही जनता को बता देता है की जॉन डो, धोखेबाज़ और फ़र्ज़ी है और जॉन विल्लोहबी ने जॉन डो बन कर उसको और जनता के विश्वास के साथ धोखा दिया है।

अब जनता का सारा आक्रोश उस जॉन डो की तरफ उमड़ पड़ता है। इस सब से दुखी और हताश जॉन विल्लोहबी, जॉन डो के पहले फ़र्ज़ी पत्र की घोषणानुसार, सबसे ऊँची ईमारत से कूद कर, आत्महत्या करने का निश्चय करता है। अब एक वर्ग चाहता है की जॉन डो मर जाये और दूसरी तरफ मिशेल का हृदय परिवर्तन होता है और वो उसे मरने से रोकती है। अंत में जॉन विल्लोहबी, जॉन डो का चोला उतार कर, रात के अँधेरे में शहर छोड़ देता है।

इस कहानी में आपको NDTv, ABP, Aaj Tak, बरखा दत्त, रवीश कुमार, राजदीप सरदेसाई, राणा अयूब, येचुरी, राजा, केजरीवाल, सोनिया गांधी, रोहित वैमुला, कन्हैया सब के दर्शन हो जायेंगे।

वो फ़िल्म थी इसलिए मिशेल उसे जिन्दा रखती है लेकिन भारत की कहानी हकीकत है, यहां कोई किसी को नही बचाएगा।

जॉन डो बच गया लेकिन कन्हैया, रोहित वैमुला बनने से बचेगा इसमें शक है, क्योंकि उसकी पल पल होती मौत को टीवी पर कई रातों से देख रहा हूँ।

Saturday, 12 March 2016

"અદીતી ની કલમે થી"....

"क्यों बे हराम के बीज......!! ऊपर क्या तेरी माँ खड़ी है जो घूर रहा है......"
"ऐ बाई !! समझा ले साली को..... बहुत उड़ रही है ये......!!" तेजपाल ने चाय का गिलास रख डंडा हाथ में उठा लिया, "ये लट्ठ देख रही है न.... मार मार के भूत बना दूंगा हरामजादी का अगर गुड्डू को गाली दी तो......"
"हवलदार है, हवलदार की औकात में रह तेजपाल...!! तेरे डी.सी.पी. को एक फोन मारा न.... कुत्ते की तरह तलवे चाटेगा मेरे....."
"रुक साली.... अभी आता हूँ ऊपर......" तेजपाल बढ़ने ही लगा था कि गुड्डू ने आकर उसका बाजू पकड़ कर रोक लिया.... "जाने दो न साहब !! वो तो है ही नीच, बदज़ुबान...... रोज़ का है उसका तो !! आप क्यों मेरे लफ़ड़े में पड़ते हैं........"
"तू सीधा है गुड्डू इसीलिए तेरे सर हो जाती है ये साली......" डंडा दीवार के सहारे टिका कर, स्टूल पर बैठते हुए तेजपाल ने कहा.
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जी. बी. रोड की देह-मण्डी में रोज़ाना जाने वालों में ये मशहूर था......... दिल्ली में दो ही चीज़ करारी हैं, या तो अमीना का जिस्म- या गुड्डू की चाय !!
लोग जितना अमीना के जिस्म के दीवाने थे, अमीना के बर्ताव और रुतबे से उतना ही खौफ़ खाते थे. अमीना बाकी धंधेवालियों से ज़्यादा पढ़ी लिखी भी थी, और साथ ही बला की सुन्दर....... जिसने उसे सबसे ज़्यादा महंगा बना दिया था. नेता-बिज़नेस मैन-बड़े सरकारी नौकर सबकी पहली पसंद थी अमीना. इसी वजह से जोड़-तोड़ के लिए रिश्वत और पैसे से ज़्यादा मांग अमीना की थी. अमीना के यहां आने-जाने वालों के हिसाब से आसपास कोई ढंग का चायवाला नहीं था. बड़ी बाई, जिस ने पैसों के लिए मजबूर अमीना को अपने यहां रखा था, उसने इलाके के हवलदार तेजपाल को कोठे के नीचे कहीं एक बढ़िया चाय का खोखा खुलवाने को कहा था.
यूँ ही एक बार जब तेजपाल ड्यूटी ख़त्म कर के घर जा रहा था तब उसे रास्ते में एक बीस-बाइस साल का लड़का सड़क किनारे बैठकर रोता दिखा. तेजपाल लड़के के पास गया..... देखा तो उसके माथे पे चोट थी, गाल पर उँगलियाँ छपी थीं और कपड़े फटे थे..... "खड़ा हो भई !! क्या बात है......"
लड़का और सहम गया, शायद तेजपाल की वर्दी देखकर.
"अरे खड़ा हो..... क्या नाम है तेरा ?", लड़का घबराता हुआ खड़ा हुआ, और शर्ट की आस्तीन से आंसू पोंछता हुआ बोला, "साब..... गुड्डू !!"
"क्या करता है, क्यों रो रहा है यहां बैठ के....?"
"चाय बेच रहा था साब..... पीछे वो जो दो चाय की दुकानें हैं, उन्होंने मारा. कहते हैं उनका इलाका है..... उनसे पूछे बिना कोई और चाय नहीं बेच सकता. मेरी केतली और सामान भी रख लिया साब......."
"कहाँ रहता है ??"
"सात नंबर में साब....."
"कब्रिस्तान में ??"
"हाँ साब....."
तेजपाल को बड़ी बाई की बात याद आ गई. और उसने ये भी सोचा कि खुद दुकान लगवाएगा तो कमाई भी खूब होगी...... इलाका अपना है तो कमीशन भी नहीं देना होगा......
"चाय का खोखा लगाएगा ?? सामान मैं करवा दूंगा जुगाड़......... बोल ??"
"हाँ साब...... कमाने ही तो निकला था घर से !!"
"ठीक है फ़िर...... कल सुबह बासठ नंबर के नीचे मिलियो दस बजे !! मेरा नाम तेजपाल है, कोई दिक्कत हो तो मेरा नाम ले लियो......"
और अगले दिन से बासठ नंबर के नीचे गुड्डू की अपनी चाय की दुकान थी. खूब कमाई थी बिक्री का कोई हिसाब न था.
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गुड्डू चाय बनाते-बनाते एक रिक्शेवाले से बात कर रहा था. तभी ऊपर कोठे की सीढ़ियों से एक आदमी लुढ़कता हुआ नीचे आ गिरा...... और उसके पीछे पीछे लाठी लिए दो मुस्टंडे. उन लंबे चौड़े पट्ठों ने उस आदमी पर जी भर के लाठी भाँजी..... ऊपर से एक लड़की मुंह भर-भर के गन्दी गालियां बके जा रही थी. गुड्डू ने ऊपर देखा, और तकता रह गया....... उसने कभी ऐसी लड़की नहीं देखी थी. दूध से भी चिट्टी.... बाल हल्के-हल्के घुमावदार, लम्बे और बेहद काले...... बैलों जैसी बड़ी बड़ी आँखें..... उँगलियों पर सोने की अंगूठियां थीं और गले में सोने की लटें.... उसे ये लड़की एकदम उस देवी की फ़ोटो जैसी लगी, जो कैलेण्डर उसके घर में टंगा था..... जिसे वो रोज़ नहाने के बाद अगरबत्ती दिखाता था.
लेकिन तेजपाल तो कहता था कि ऊपर बस रण्डियाँ रहती हैं......!!! ये सवाल उसके दिमाग में घूमने लगा. लड़की ने एक ज़रा सी नज़र गुड्डू की तरफ़ देखा..... गुड्डू ने घबरा कर आँखें वापिस चाय के बर्तन में धंसा लीं और उसमें चायछन्नी से चाय फेंटने लगा. सब कुछ कुल मिलाकर दो मिनट में हुआ.... और फिर सब वैसा ही जैसा हमेशा रहता था !! गुज़रते रिक्शे... सड़क से बासठ नंबर की खिड़कियाँ देखते लड़के.... ऊपर खिड़कियों से इशारे करती रण्डियाँ...... नीचे मशीनों के पुर्ज़े बेचते दुकानदार... और आसपास ग्राहकों को खोजते दलाल. चाय फेंटने के बाद गुड्डू ने देखा, रिक्शेवाला उन दो में से एक मुस्टंडे से बात कर रहा था. मुस्टंडों के ऊपर जाते ही गुड्डू ने रिक्शेवाले को पास बुलाया..... "क्यों राजाराम !! क्या मामला है ??"
"वो ऊपर लड़की दिखी ??" रिक्शेवाले ने तमाखू रगड़ते हुए कहा.
"हाँ" गुड्डू ने एक नज़र से फिर ऊपर देखा, वो नहीं थी अब, "वही न...... जो गाली बके थी ?!"
"हाँ रे, वही !! अमीना नाम है उसका...... यहां का सबसे कर्रा माल है वो लला !! जितनी सुन्दर है उतनी ही नकचढ़ी " और उसने हथेली का तमाखू गुड्डू की तरफ़ बढ़ाया. "ना, मैं नहीं...."
"तू तमाखू नहीं खाता ???"
"नहीं बे...." गुड्डू ने चाय चूल्हे से उतार ली और छानने लगा, "हाँ तो, माजरा तो बता राजाराम...."
राजाराम निचला होंठ उंगलियो से पकड़ के बाहर किए, तमाखू बिठा रहा था..... "जो पिटा, वो वकील था..... कोरट का !!"
"बाप रे..!!! वकील की पिटाई ??!!"
"हाँ ! अमीना के होंठ चूमने की कोशिश कर रहा था..... वो चिल्ला पड़ी. पहलवानों ने उठा के फेंक दिया बाहर."
"ये अमीना...... करती क्या है ऊपर??" सवाल सुनते ही रिक्शेवाला ठहाका मार कर हंसने लगा.
"अबे लल्लू.... भूल गया ??!! ऊपर रण्डियाँ ही रहती हैं....." उसने हँसते हुए रिक्शे पर पैडल मारे और चल दिया. गुड्डू एक बार ऊपर देखता, और एक बार जाता हुआ रिक्शा.......
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"क्या हुआ मेरी बच्ची..... क्यों मुए चायवाले पर अपनी ज़ुबान गन्दी करती है !!" बड़ी बाई ने कंधे से पकड़कर अमीना को अंदर ले जाते हुए कहा.
"मौसी पता है न तुझे...... मेरी मजबूरी ने मुझे धन्धे में उतारा है !!" अमीना आईने के सामने जा कर बैठ कई, और अपनी ही नज़रों से नज़रें मिला कर बैठ गई....... फिर उसने आईने में पीछे बैठी बड़ी बाई को देखा, "आइना गवाह है मौसी, जिसम ही बेचा है...... रूह नहीं. इसी लिए किसी हराम के जने को कभी चेहरा नहीं चूमने दिया."
"सो तो ठीक है...... मगर ये चायवाले, रिक्शेवाले इनपे क्या बरसना बिटिया !! ये भी तो हमारी ही तरह तक़दीर के पीटे हैं...... ये क्या करेंगे, दो नज़र आँख भरते हैं बस हमें देख कर "
"नहीं मौसी !! मुझे इसकी नज़र चुभती है..... जाने क्यों......" उसकी बात सुनकर बड़ी बाई ज़ोर से हँसने लगी..... "न जाने कब बड़ी होगी मेरी बच्ची !!"
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"आओ पहलवान भाई !! सलाम...." बड़ी बाई के दोनों मुस्टंडों में से एक गुड्डू की दुकान पर था "कितनी चाय लगाऊं ??"
जब भी ऊपर कोई आता तो उन दोनों पहलवान लड़कों में से ही कोई एक चाय लेने नीचे आता था, इसलिए उसका नीचे आना कोई नई बात नहीं थी.
"ऊपर चल गुड्डू...." सुनते ही गुड्डू के होश फ़ाख़्ता हो गए. वह मन ही मन जितने भगवानों को याद कर सकता था किया, और अपने कांपते जिस्म को किसी तरह समेटकर बोला "क्या हुआ बड़े भाई, मुझसे कोई गलती हो गई क्या ??"
मुस्टण्डा गुड्डू के कंधे पर हाथ रखते हुए बोलने ही वाला था कि...... उसके हाथ उठाने पर गुड्डू ने आँखें मीच कर अपने हाथ गाल के सामने कर लिए मानों उसे तमाचा पड़ने वाला हो. पहलवान की हँसी छूट गई...... "डरता क्यों है मेरी जान, चल ऊपर...... अमीना ने बुलाया है"
सीढ़ी के सत्रह पायदान गुड्डू ने गिन-गिन कर पार किए..... और हर पायदान पर उसे एक-एक करके वो गालियाँ याद आ रहीं थी जो अमीना दिया करती थी. पहलवान बाहर ही रुक गया. उसने दरवाज़ा खोला, और ग़ुलाबी रंग के खूबसूरत परदे को हटाते हुए उसने अमीना को आवाज़ देकर गुड्डू को अंदर भेज दिया...... और बाहर से दरवाज़े का पल्ला भिड़ा दिया.
"आ बैठ....!!" गुड्डू ने अमीना की आवाज़ तो पहले भी सुनी थी, मगर ये लहज़ा उसके लिए नया था. वो अभी तक बैठा फ़र्श पर बिछे कालीन को ही निहार रहा था, और पैर के अंगूठे को गोल-गोल घुमाकर उसकी नरमाई महसूस कर रहा था.
"भले ऊँगली जल जाए, चाय उबल कर फ़ैल जाए..... तब तो तेरी नज़रें मेरे जंगले के अंदर घुसी जाती हैं, आज सामने हूँ तो नज़रें ज़मीन में घुसाए बैठा है....." अबकी बार अमीना की आवाज़ कमोबेश रूखी थी, और उसमें तंज था.
"वो मैं..... मैं....." गुड्डू की आवाज़ निकलते निकलते रह गई.
"मिमियाता क्या है, बोल न..... बता, क्या चाहता है तू !! क्यों घूरता रहता है मुझे....." अमीना की आवाज़ में गुस्सा था, बेचैनी थी, अजीब सी बेचैनी.... "बोल आज, आखिर चाहता क्या है.... अरे तुम सब मर्द एक ही हो !!!" वो तेज़ क़दमों से चल के गुड्डू के पास आ गई, वो घबरा कर उठ खड़ा हुआ और उसका चेहरा देखने लगा. वो गुस्से से काँप रही थी, और उसके दूधिया गाल रंगीन हो गए थे....... ग़ुलाबी नहीं, अनारी लाल !!
"बोल क्या परेशानी है !! पैसे नहीं हैं ??" अमीना ने गुड्डू का गिरेबान पकड़ लिया... "तुझ पर भीख समझ कर ये रहम रहेगा मेरा...... जा, नहीं मांगती तुझसे पैसे !! कर ले अब जो करना चाहता है....." और अमीना ने अपनी साड़ी का पल्लू हटाकर गुड्डू के हाथ पकड़े, और अपने सीने पर रख दिए.
वो कमरा सन्नाटे से भर गया. साँसों तक का शोर नहीं था. उस खामोशी को बस कभी कभार नीचे सड़क से गुज़रती गाड़ी का हॉर्न, काट देता था. अमीना गुड्डू की आँखें देखती रही...... और गुड्डू उसका चेहरा !! उसके हाथ अब भी वहीँ थे अमीना की छाती पर. गुड्डू के होठों ने उस सन्नाटे को तोड़ा, "तू बहुत सुन्दर है अमीना....."
अमीना के होंठ ज़रा से खुले, और गुस्से से रूखी हो चली उसकी लाल आँखों में ज़रा सी नमी भर गई. उसने कई दफ़े अपने सीने पर रखे हाथों का भार महसूस किया था, और वो हाथ उसके सीने से नीचे कमर की तरफ़ बढ़ते थे..... ये पहली बार हुआ कि कोई हाथ उसके सीने से हट के उसके गालों पर चला आया था. उसने उन हाथों को हटाया नहीं...... बस गुड्डू की आँखों में देखती रही.
"तू बिलकुल वैसी लगती है, जैसी मेरे घर के कैलेण्डर में देवी माँ की फ़ोटो है....... बल्कि तू उस फ़ोटो से भी सुन्दर है !!" गुड्डू उसके गालों को सहलाए जा रहा था, उसके माथे पर पड़ी बेतरतीब लटें हटा रहा था......"फ़ोटो वाली की आँखें एकदम काली हैं, तेरी और भी सुन्दर हैं..... भूरी-भूरी !!" कमरे में फ़िर दो पल एकदम सन्नाटा रहा, मगर इस बार साँसों का शोर सुनाई पड़ता था........ गुड्डू की उंगलियाँ जी भर अमीना का चेहरा छू रही थीं. उसकी आँखें एकटक अमीना का चेहरा निहार रही थीं. और साँसें बढ़ती ही जाती थीं.......!!
उसने घबराते हुए, अपने कांपते होंठ अमीना के होठों पर रख दिए...... अमीना ने अपनी आँखें मींच लीं. अमीना ने पहली दफ़े होठों पर धड़कनें महसूस कीं........ आज उसके होठों पर दुनिया ठहर गई थी जैसे !! और उसके गालों पर आंसू बेतहाशा बह रहे थे........
आंसू की एक ठण्डी बूँद उनके होठों के बीच बह आई...... गुड्डू का ध्यान टूटा. उसने अपने होंठ अमीना के चेहरे से अलग किए, और उसका चेहरा देखते देखते ही दरवाज़े से बाहर चला आया.
उस दिन दुबारा गुड्डू ने पलटकर ऊपर नहीं देखा. उस पूरे दिन, उसने ध्यान दिया कि कोई ऊपर नहीं गया. पुरे दिन ऊपर चाय नहीं गई...... बिक्री पर भी असर पड़ा.
मगर तेजपाल को उसके पांच सौ रूपए तो थमाने ही पड़ेंगे...... यही सोचते हुए गुड्डू रात को घर लौटा. आज उसे बहुत सुकून था, सो नींद भी जल्दी आ गई...... खाना भी नहीं बनाया.
सुबह दूकान खोलने पहुंचा तो देखता है, पुलिस वालों की भीड़ सी लगी थी. कई लोग ऊपर जाते थे, कई नीचे आते थे. अफ़रातफ़री का माहौल था. तभी उसने दोनों में से एक मुस्टण्डे को नीचे उतारते देखा और भाग कर उसके पास पहुँच गया, "सलाम पहलवान भाई !! कैसी भीड़ मची है आज ??" उसे आज पहली बार पहलवान थका हुआ सा दिखा. उसने जब जवाब देने के लिए गुड्डू के कंधे पर हाथ रखा, तो आज वो डरा नहीं....

"अमीना ने रात में फांसी लगा ली......."😑😑